बढ़त विज्ञान अउर नई – नई तकनीकी का जमाना पुराने तौर तरीका का धूल मा मिला के रख दिहिस।
अगर बिजली के ही बात कीन जाय तौ सरकार कइत से बिजली लगावै खातिर कइयौ योजना चलाई गई हंै। या मारे मड़ई अब सरकार के योजना के ऊपर निर्भर होइगा है। पहिले मड़ई सेल अउर कोयला, तार अउर बल्ब से रोशनी बना लेत रहै। या फेर गोबर गैस से दुगुना फायदा लेत रहै। खाना बनावैं अउर रोशनी करैं के अलावा गोबर के खाद भी मिल जात रहै। हां या जरूर है कि मड़इन का थोई मेहनत ज्यादा करैं का परत रहै। जइसे कि अगर बिजली लगवावैं का है तौ पहिले रूपिया दें के बाद भी बिजली विभाग के चक्कर लगावै का परत है। बाद मा तौ बिजली का बिल भरै का ही परत है। कइयौ दरकी बिल भरैं के बाद भी बिल का कर्ज बढ़त है। ऊपर से बिजली बराबर कतौ नहीं मिलत आय। चाहे शहर होय या फेर गांव।
दूसर कइत या भी है कि जउन पुरान तौर तरीका रहै उनका धीरे धीरे चलन फेर से चलै लाग है। सच्चाई तौ या है कि पुरान तौर तरीका हैं तौ पै यतना मंहगा है कि सबके अजमावैं से बाहर है। जइसे कि हाथ से बनी चीजन का शहरी जनता के बीच बड़ा ही महत्व है। जइसे हाथ से बुने कढ़े कपड़ा, लकड़ी के बने फर्नीचर जइसे सामान बांदा शहर के हथकरघा प्रदर्शनी मा बिकत हैं अउर बहुतै मंहगे है। जिनका मड़ई सउख से खरीदत है। वहै कहावत है कि पइसा फेंक तमासा देख। चाहे बिजली लगवावैं खातिर होय या फेर हाथ के बने चीजन का खरीदै खातिर होय।
बहुत सारे गांव आज भी हैं जहां बिजली विभाग के होय के बाद आज भी मड़ई आपन जुगाड़ से बेगैर कउनौतान का खर्च करे घर मा रोशनी के व्यवस्था करत हैं।
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