2 जुलाई 2009 को, एक ऐतिहासिक निर्णय में, दिल्ली के उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी) की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था.
धारा 377 के अनुसार, “जो व्यक्ति किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक रूप से शारीरिक सम्बंध बनाता है, उसे आजीवन कारावास या फिर 10 वर्षों से अधिक की सज़ा देने का प्रावधान था.” इस कानून के आधार पर समलैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों के साथ कई क्षेत्रों में भेदभाव, अन्याय और हिंसा की जा रही थी.
इससे पहले, दिसंबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 के निर्णय को पलट दिया था. जिसका विरोध करते हुए, समलैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों के लिए काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था नाज फाउंडेशन ने धारा 377 के ख़िलाफ़ दरख़ास्त डाली थी.
साल 2014 में नाज़ फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट के 2013 के निर्णय के ख़िलाफ़ एक नई दरख़ास्त पेश की. इस समय सुप्रीम कोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन की दरख़ास्त को एक पांच जजों के बेंच को सौंपा दिया था.
हाल ही में कुछ प्रमुख लोगों जो स्वयं को समलैंगिक और ट्रांसजेंडर समुदाय का हिस्सा मानते हैं ने मिल कर सुप्रीम कोर्ट में धारा 377 के ख़िलाफ़ एक नई अर्जी दी. उनका मानना है कि धारा 377 की वजह से वो अपने ही देश में अपराधियों की तरह जी रहे हैं. अगर वो अपने देश का नाम अपने काम द्वारा रोशन कर रहे हैं, तो उन्हें बाक़ी नागरिकों की तरह सम्मान क्यों नहीं मिल रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने भी इनकी अर्जी को भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया है. अब वो तय करेंगे कि इस नई अर्जी को पुरानी दरख़ास्त के साथ सुनना चाहिये या नहीं?
भारत के बाहर, ब्रिटेन का कानून समलैंगिक रिश्तों को वैध मानता है. लेकिन अंग्रेजों के शासन के समय का कानून आज भी भारत में किस आधार पर है? ये कानून लाखों लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करता है. ताज्जुब की बात ये है कि भारत कुछ चुनिंदा देशों में से है जो अभी तक समलैंगिक रिश्तों को अवैध मानता है. संयुक्त राष्ट्र जैसे अन्तराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत ने समलैंगिक रिश्तों पर चुप्पी बनायी हुई है.