दूसरों की सेवा में जीवन अर्पित करने वाली मदर टेरेसा की आज 108वीं जयंती है. वे ऐसे महान लोगों में से एक हैं जो सिर्फ दूसरों के लिए जीती थीं। संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाली मदर टेरेसा का असली नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’था।
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। 18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो में शामिल होने का फैसला लिया और फिर वह आयरलैंड चली गयीं जहाँ उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी क्योंकि ‘लोरेटो’की सिस्टर्स के लिए ये जरुरी था। आयरलैंड से 6 जनवरी, 1929 को वह कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट पंहुचीं। 1944 में वह सेंट मैरी स्कूल की प्रधानाचार्या बन गईं।
मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व ग़रीबों की स्वयं सेवा करती थीं। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली थी।
7 अक्टूबर 1950 को उन्हें वैटिकन से ‘मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी’की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य समाज से बेखर और बीमार गरीब लोगों की सहायता करना था। मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से सम्मनित किया गया था।
भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री से सम्मनित किया। इन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार और 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा ने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि गरीबों को फंड कर दी। 1985 में अमेरिका ने उन्हें मेडल आफ़ फ्रीडम से नवाजा।
अपने जीवन के अंतिम समय में मदर टेरेसा ने शारीरिक कष्ट के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी झेले क्योंकि उनके ऊपर कई तरह के आरोप लगाए गए थे। उन पर ग़रीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनाने का आरोप लगा। भारत में भी पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में उनकी निंदा हुई। उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था।
साल 1991 में मैक्सिको में उन्हें न्यूमोनिया और ह्रदय की परेशानी हो गयी। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई।