बीजेपी लगातार दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश में लगी है। जिसके लिए बीजेपी ने पहले मेरठ की रहने वाली कांता कर्दम को राज्यसभा भेजा और फिर आगरा की रहने वाली बेबीरानी मौर्य को उत्तराखंड का राज्यपाल बना दिया। खास बात ये है कि महिला होने के साथ-साथ दोनों जाटव बिरादरी से आती हैं।
सपा-बसपा गठबंधन से चिंतित बीजेपी अब गैर जाटव दलितों के साथ-साथ जाटवों में भी पैठ बनाने की कोशिश में जुट गई है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ओबीसी और दलित समाज कुल जनसंख्या का लगभग 70 फीसदी है। इस लिहाज से किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल के लिए इनकी अनदेखी चुनाव में भारी पड़ सकती है।
उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 21 प्रतिशत है। उनमें लगभग 66 उप-जातियां हैं जो सामाजिक तौर पर बंटी हुई हैं। यूपी की दलित जनसंख्या में जाटव 55 प्रतिशत बताए हैं। जिसमें सबसे ज्यादा हिस्सा मायावती को मिलता रहा है।
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के मुताबिक, दलितों की 1263 उपजातियां हैं। माना जाता है कि यूपी में बीएसपी के उदय के बाद जाटव वोटों पर कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा पाई। बीजेपी ने गैर जाटव वोट जरूर हासिल किए थे।
2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की रणनीति गैर जाटव दलितों में सेंध लगाने की थी। इसमें वो काफी हद तक कामयाब भी रही थी। चुनावी विश्लेषक भी यह मानते रहे हैं कि जाटव वोटरों पर मायावती की पकड़ काफी मजबूत है।
माना जा रहा है कि जाटव वोट पर मायावती की पकड़ कमजोर करने के लिए ही बीजेपी ने कांता कर्दम और बेबीरानी मौर्य को आगे किया है। हालांकि, देखना ये होगा कि क्या जाटव वोटों में सेंध लगाने का प्रयोग सफल होगा?
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं यह 2019 की चुनावी ‘व्यूह रचना’ है। इससे कितना फायदा मिलेगा यह कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तय है कि जाटव वोटरों को बीजेपी संदेश देने में कामयाब रहेगी कि वो उनके लिए काम कर रही है।