सौ सालों में उत्तर भारत के जम्मू कश्मीर राज्य में सबसे खतरनाक बाढ़ सितम्बर 2014 में आई। पांच दिनों की भारी बारिश का दो लाख से ज़्यादा लोगों पर असर पड़ा, सैकड़ों मारे गए। पर आखिर कैसे अचानक स्थिति इतनी बेकाबू हो गई? क्या इस आपदा को टाला जा सकता था?
जम्मू कश्मीर को धरती पर बसा स्वर्ग माना जाता है। हज़ारों की तादात में पर्यटक इस खूबसूरती को देखने जाते हैं। इस बाढ़ से यहां कई खूबसूरत इमारतें और झीलें भी प्रभावित हुईं। कई विशेषज्ञों के अनुसार पर्यटन को बढ़ावा देने के चक्कर में ही बाढ़ का प्रभाव इतना गंभीर था। 2010 में राज्य सरकार ने खुद एक रिपोर्ट में कहा था कि यदि बाढ़ आई तो स्थिति को काबू करना मुश्किल होगा। सालों से ना झेलम नदी की सफाई हुई है और एक के बाद एक होटलों और दुकानों के लिए अंधाधुंध पेड़ों और झीलों के क्षेत्र को छोटा किया गया है। इस रिपोर्ट को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। जब नदी में पानी बढ़ा तो सीधे राजधानी श्रीनगर और तीन अन्य जिले उसकी चपेट में आ गए। 2013 में उत्तराखंड में बाढ़ आई थी। तब भी विशेषज्ञों ने बताया था कि पहाड़ी इलाकों में हर कोने में एक नई इमारत खड़ा कर देने से और विकास के नाम पर प्राकृतिक पर्यावरण को हद से ज़्यादा बदल देने से जान और माल का नुकसान कई गुना बढ़ जाता है। कश्मीर और केदारनाथ जैसी जगहों में लाखों की तादाद में पर्यटक हर साल जाते हैं। दोनों ही जगहें पहाड़ों पर हैं जहां पर्यावरण को बचाकर रखने की ज़रूरत है क्योंकि पर्यावरण ही वहां का संसाधन है। लेकिन दोनों जगह छोटे-बड़े होटल, दुकानें, ढाबे, निजी बंगले वगैरह बने हैं जिसके लिए जंगल काटे गए हैं और निर्माण के नियमों में रियायत भी दी गई है। कई और पहाड़ी पर्यटक स्थलों में भी यही हाल है, इसलिए कश्मीर जैसी त्रासदियां होती रहेंगी अगर बेतहाशा निर्माण और पर्यावरण का नुक्सान होता रहेगा।
त्रासदी को रोक सकती है पर्यावरण की रक्षा
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