22 अगस्त को देश की न्यायपालिका ने तीन तलाक पर फैसला सुनाते हुए, इसे असंवैधानिक कहा। पांच जजों की संविधानी पीठ ने इसे 3-2 के बहुमत से असंवैधानिक करार दिया। हालांकि पांचों न्यायाधीश इस बात पर सहमत थे कि इस प्रथा पर रोक लगनी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर और न्यायाधीश एस अब्दुल नजीर ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल देने से इनकार कर दिया। उन्होंने इस पर छह महीने की रोक लगाते हुए सरकार से इस पर कानून बनाने को कहा। वहीं तीन जज कुरियन जोसफ, रोहिंग्टन एफ नरीमन और यू यू ललित ने इसे मूल अधिकारों का हनन कहते हुए असंवैधानिक बताया।
अदालत के समक्ष सभी पक्षों, चाहे वह पीड़ित महिला, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या केंद्र सरकार हो, सभी ने माना की तीन तलाक का गलत इस्तेमाल हो रहा है और ये महिला और पुरुष के बीच भेदभाव को बढ़ा रहा है। 1400 साल से चली आ रही इस प्रथा में लोगों का विश्वास है, जिसके कारण ये हर धर्म के निजी कानून का हिस्सा है। धार्मिक कानूनों पर न्यायालय बदलाव नहीं कर सकता है, जिसके कारण न्यायालय ने केन्द्र सरकार को इस पर कानून बनाने को कहा। न्यायालय ने कहा कि ये दुखद है कि सरकार हमसे बदलाव करने को कह रही है।
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तीन तलाक कैसे आया न्यायालय में
तीन तलाक का मामला पहली बार सुप्रीम कोर्ट के स्वतः संज्ञान के कारण आया। ये मुद्दा अक्तूबर 2015 में कर्नाटक की हिंदू महिला फूलवती के हिंदू उत्तराधिकार कानून को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान उठा।
इसके बाद काशीपुर की सायरा बानो, जयपुर की आफरीन रहमान, हावड़ा की इशरत जहां, हरिद्वार की आतिया साबरी और रामपुर की गुलशन परवीन ने तीन तलाक प्रथा का विरोध किया। ये पांचों महिलाओं को अलग-अलग तरह से तीन तलाक मिला था।
इस विवाद में केन्द्र सरकार ने कहा कि सभी पर्सनल कानून संविधान के दायरे में हों। शादी, तलाक, संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकार को एक कानून में लाया जाए।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शुरुआत में तीन तलाक के मुद्दे पर कोर्ट के दखल को गलत बताया। पर बाद में खुद ही इसे अवांछनीय कहा और इसका बहिष्कार किया।
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अब तीन बार में तलाक बोल देने से तलाक को मंजूरी नहीं मिलेगी। न्यायालय ने 6 महीने की रोक के साथ सरकार को इस पर कानून बनाने का आदेश दिया है। ये फैसला सही मायने में हमारी न्यायालय पालिका की सर्वोच्यता को साबित करने वाला फैसला हैं क्योंकि इस मुद्दे को न्यायालय ने खुद संज्ञान में लिया था।
हालांकि वर्तमान सरकार भी इस फैसले का सारा श्रेय लेने से पीछे नहीं हटा रही हैं। पर सही मायनों में ये न्यायपालिका और उन पांच महिलाओं की जीत हैं, जिन्होंने इसके खिलाफ बुलंद आवाज उठाई थी।