हमीदा खातून सात साल से सनतकदा, लखनऊ में काम रहीं हैं। मुस्लिम लड़कियों को नेतृत्व में लाने की ट्रेनिंग देना और कम्प्यूटर सीखाना इनके काम का हिस्सा है। हमीदा इन मुद्दों पर कई फिल्में भी बना चुकी हैं।
उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद जि़ले के एक गांव में जन्मी हमीदा मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को कमप्यूटर ट्रेनिंग देती हैं। वे कहती हैं कि कमप्यूटर ट्रेनिंग के बहाने घरों में कैद लड़कियों को बाहर निकलने का मौका मिलता है। कमप्यूटर से वह पूरी दुनिया में हो रहे बदलाव को जान पाती हैं। हम उनमें नेतृत्व की क्षमता जगाते हैं। जेंडर के प्रति नज़रिया विकसित करते हैं। पितृसत्ता की पहचान कराते हैं। एक लड़की हमारे यहां कमप्यूटर सीखने आती थी। उसे जेंडर की ट्रेनिंग दी गई। ट्रेनिंग के बाद जब हमने उससे पूछा कि क्या समझ आया तो उसने कहा – अब समझ आया कि अब्बू और भाई को चिकन की टंगड़ी क्यों दी जाती है और उन्हें दूध और अंडा क्यों दिया जाता है? यह हमारे साथ भेदभाव है।
हमीदा ने बताया कि लड़कियों को बाहर निकालने में कई तरह की चुनौतियां हैं। समुदाय में लड़कियों का घर से निकलना गलत समझा जाता है। मैं और मेरी संस्था की कुछ और महिलाएं बस्ती में जाकर पहले बैठक करती हैं। बताती हैं कि कमप्यूटर सीखने से उन्हें रोज़गार मिलेगा। बस्ती में बैठक के बाद सौ से डेढ़ सौ एप्लीकेशन आ जाती हैं। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि उन्हें इस बस्ती से दूर जाना पड़ेगा, सब मुकर जाते हैं। सीखने के लिए मुश्किल से बीस-पच्चीस लड़कियां ही तैयार होती हैं। पहले लड़कियों की अम्मी को मनाओ, फिर अब्बू को, फिर भाईजान को। कभी कभी तो दादा जान और चचा जान को भी।
अक्सर शुरुआत में यह लड़कियां डरी सहमी आती हैं। उनकी मम्मी, अप्पी, फूफी छोड़ने आती हैं। कुछ समय बाद अकेली आना शुरू करती हैं। एक डेढ़ महीने बाद अपनी चाहतों के बारे में बात करती यह लड़कियां और कमप्यूटर पर चलती उनकी उंगलियां मुझे अपने शुरुआती समय की याद दिलाती हैं। मैं भी पहली बार जब घर से बाहर निकली थी तो किसी से बात करते भी डर लगता था। हमेशा लगता है कि घरों की चाहरदीवारी के भीतर कई तरह का हुनर दम तोड़ देता है। उसे बाहर लाने की ज़रूरत है। बस मैं यही कर रही हूं।