उत्तर भारत में ठंड ने सब की हालत खस्ता कर दी है। राजधानी दिल्ली में पैंतालिस सालों में सबसे कम तापमान 2 जनवरी 2013 को रिकार्ड किया गया। जगह-जगह से ठण्ड से लोगों के मरने की खबरों का आना रुका ही नहीं है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार अभी तक अकेले उत्तर प्रदेश राज्य में लगभग दो सौ लोग मर चुके हैं। देखा जाए तो ये सिर्फ दर्ज हुए मौतों की संख्या है। इसके अतिरिक्त और कितने लोग गांवों में ठण्ड और उससे जुड़े कारणों से मरे हैं, इसका अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता है।
ऐसे तो मौसम विभाग को पहले से आने वाली कड़ाके की सर्दी और कम तापमान की जानकारी थी, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं उठाया गया। जब सर्दी बढ़ी तो सरकार की ओर से कोई व्यवस्था नहीं थी – ना तो रैन बसेरे बने थे और ना ही अलाव जलाए जा रहे थे। इस मौसम में इन सुविधाओं का प्रबंध करना सरकार की जि़म्मेदारी है पर अधिकतर लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं है।
जहां रैन बसेरे बनते भी हैं वहां साफ-सफाई की कोई व्यवस्था नहीं होती और महिलाओं के लिए भी ये बसेरे सुरक्षित नहीं होते। शहरों में सड़कों पर रह रही महिलाओं के लिए भी मुश्किल हो जाता है जब उन्हें यौन उत्पीडन का सामना करना पड़ता है। गांवों में जहां पुरुष अन्य सार्वजनिक स्थानों पर आग सेक सकते हैं, वहीं महिलाओं को घर बैठकर ही अपने लिए कोई इंतज़ाम करना पड़ता है।
सवाल ये है कि जब ऐसी जटिल परिस्थितियों में सरकारी मदद के लिए योजनायें हैं तो इनके बारे में जानकारी और सुविधायें जनता को क्यों नहीं प्राप्त हैं? क्या हर साल मौसम की कठोरता भी आम जनता को ऐसे ही झेलनी पड़गी?