वुमेन इन कंप्यूटिंग के ग्रेस होपर सेलिब्रेशन में हिस्सा लेने वाली महिलाओं की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है। यह सारी महिलाएं तकनीकी के व्यवसाय से जुड़ी और इसकी जानकार हैं। इतनी बड़ी संख्या में तकनीकी के क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं को एक साथ लाने के लिए यह एक बड़े स्तर पर होने वाली कांफ्रेंस है। हर साल होने वाला यह वार्षिक समारोह इस साल 2 दिसंबर से शुरू होकर 4 दिसंबर को खत्म होगा। इस समारोह का आयोजन अनीता बोर्ग इंस्टिट्यूट के द्वारा होता है। पेश हैं इस समारोह के मकसद और प्रक्रिया को समझने के लिए इस संस्थान की मैनेजिंग डायरेक्टर गीथा कानन से बातचीत के प्रमुख हिस्से। जेंडर समानता को लेकर हमने उनसे खास पूछताछ की। गीथा कानन ने कई कंपनियों में कर्मचारियों की भर्ती यानी एच.आर. का काम किया। वरिष्ठ प्रबंधक के रूप में या कार्यकारी अधिकारियों के लिए नेतृत्व क्षमता विकसित करनेवाली कई कंपनियों में काम किया है। इनका सबसे ज़्यादा अनुभव महिलाओं को तकनीकी के क्षेत्र में मौके मुहैया कराने और कंपनियों में उनके साथ काम करने का है।
सवाल – एचआर, मार्केटिंग, सस्टेनिबिलिटी, ई कामर्स जैसे क्षेत्रों में काम करने का करीब बीस साल का अनुभव है। अब महिलाओं को टेक्नोलोजी के क्षेत्र में ज़्यादा से ज़्यादा आगे लाने के लिए काम करने वाले सस्थान अनीता वोर्ग इंस्टीट्यूट में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर काम कर रही हैं। इतने लंबे अनुभव के बाद भी क्या आपको लगता है कि कार्यस्थल पर जेंडर समानता के लिए आपको कुछ और सीखने की ज़रुरत है?
जवाब – जेंडर गैर बराबरी के सवाल शायद दसियों साल पहले भी वही थे जो आज हैं। सीखने के लिए कुछ न कुछ हमेशा बना रहता है। अलग-अलग संस्थानों में लंबे समय तक मैंने काम किया है। लेकिन जब मैं इस मसले पर थोड़ा गहराई से सोचती हूं तो एक बात जो निकलकर आती है कि पश्चिमी देशों और हमारे देश में सबसे बड़ा अंतर होता है, लड़के और लड़की की परवरिश में। उदाहरण के तौर पर जब हम स्कूल जाते हैं तो हमारे दिमाग में यह भरा होता है कि हमें पढ़ाई करनी ही है। हमें कालेज जाना चाहिए। एक तरह से शैक्षिक पहचान बनाने की सोच हममें भरी जाती है। लड़कियों में शैक्षिक पहचान बनाने की सोच तो बचपन से भरी जाती है मगर करियर बनाने के बारे में सोच नहीं भरी जाती है। कई वरिष्ठ प्रबंधकों से मैंने बात की तो तीन बातें मोटे तौर पर सामने आती हैं। पहली बात हमने दर्जनों बार सुना कि महिलाओं को बहुत आक्रामक होना चाहिए, उन्हें ज़्यादा महत्वाकांक्षी होना चाहिए, उन्हें अपने वेतन और प्रमोशन को लेकर बोलना चाहिए। लेकिन यह अलग-अलग व्यक्तियों के अपने-अपने व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। दूसरी बात कंपनियों को औरतों के लिए सुरक्षित और घर जैसा माहौल बनाना चाहिए। उनके आने-जाने की व्यवस्था करनी चाहिए। तीसरी सबसे ज़रूरी बात है – सोसायटी। पश्चिमी देशों और भारत में समाज के स्तर पर बहुत ज़्यादा अंतर है। हम पिछले करीब बारह महीनों से इस मुद्दे पर बात कर रहे हैं। भारत जैसे देश में समुदाय मतलब सबकुछ। समाज में हमारी क्या छवि है, इसका सीधा असर हमारे आत्मसम्मान पर पड़ता है। कई बार आप देखेंगे कि जो औरतें अपना करियर अच्छी तरह से चला रही होती हैं। उनके पति या परिवार से कोई दिक्कतें नहीं होती हैं। मगर समाज के दबाव में उन्हें काम छोड़ना तक पड़ता है। कुछ दिन पहले की बात है कि हम एक महिला से बात कर रहे थे जो कि देर रात काम से घर पर लौटती थीं। उनके घरवाले इस समय से बेहद सहज थे। मगर आस-पड़ोस के लोग उनसे और उनके घरवालों से हमेशा सवाल पूछते थे कि आखिर रात दो बजे किस काम से आपकी बेटी लौटती है। आखिरकार उसने काम छोड़ दिया। तो जब इस तरह के दबाव से उबरने के लिए हम कोई तरीका खोजते हैं तो इसमें हम दूसरे देशों का माॅडल नहीं इस्तेमाल कर सकते हैं क्योंकि वहां का और यहां का समाज का ढांचा बिल्कुल अलग होता है।
सवाल – ऐसी नीतियां जो महिला कर्मचारियों के हित में हों, उन्हें किसी कंपनी में लागू करवाने में क्या दिक्कतें आती हैं?
जवाब – मेरा अनुभव है कि कंपनियां कागज़ में तो सबकुछ करने को तैयार हो जाती हैं। मगर सबसे बड़ी मुश्किल हमारे अचेतन में बैठ चुका एक ढांचा है। या पक्षपात है। यह पक्षपात इतना बारीक होता है कि हम जान भी नहीं पाते कि हम एक खास तरह से ही सोच रहे हैं। मैलकाॅम ग्लैडवेल की किताब ब्लिंक में साफ कहा गया है कि हम पलक झपकते ही कुछ फैसले ले लेते हैं क्योंकि हमारी कंडिशनिंग या कहें एक खास तरह के सोच विचार के माहौल में पले बड़े होने के कारण सोच विचार का एक खास तरीका विकसित हो जाता है। हम खुद भी अनजान होते हैं कि हम किसी पक्षपात भरे नज़रिए को आधार बनाकर कोई फैसला ले रहे हैं। यह सबसे कठिन चीज़ है जिससे हर कंपनी गुज़रती है। जब कोई इस तरह के फैसलों पर सवाल खड़े करता है तो इसे संस्थान की संस्कृति होने का हवाला दिया जाता है।
सवाल – ग्रेस होपर कांफ्रेंस का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा क्या है?
जवाब – पहले तो मैं आपको बताना चाहती हूं कि ग्रेस होपर कांफ्रेंस किसके नाम पर शुरू हुई। यू एस नेवी में एक महिला कंप्यूटर साइंटिस्ट के नाम पर यह शुरू हुई। इस कांफ्रेंस में सबसे ताज़ा टेक्नोलोजी पर भी बात होती है। चार सौ से ज़्यादा औरतें मिलकर इसे आयोजित करती हैं। कई वरिष्ठ पदों पर काम करनेवाली औरतें सलाहकार हैं। यह सारी महिलाएं कहीं न कहीं काम करती हैं। इसलिए आॅफिस के घंटों के बाद बचे समय को इस कांफ्रेंस के आयोजन में देती हैं। कांफ्रेंस कई हिस्सों में बंटी होती है। हर हिस्से की अपनी चेयरपर्सन और को चेयर होती है। इसमें दो हज़ार से भी ज़्यादा महिलाएं हिस्सा लेती हैं।
सवाल – क्या इस कांफ्रेंस को आयोजित करने के दौरान कोई ऐसी स्टोरी आपने किसी महिला कर्मचारी की सुनी जो लाजवाब थी। और शायद आप हमसे साझा करना चाहें?
जवाब – ऐसी दर्जनों कहानियां हैं सुनाने को। हम लोग छात्राओं को मुफ्त में पास देते हैं, इस कांफ्रेंस का हिस्सा बनने के लिए। करीब दो साल पहले एक लड़की थी जिसे हमने मुफ्त पास दिया था। तब वह स्टूडेंट थी। दूसरे साल वह लड़की फिर इस कांफ्रेंस में आई। अब वह स्टूडेंट नहीं थी। वह गूगल की कर्मचारी थी। ऐसे ही संगीता बनर्जी नाम की एक लड़की ने हमारे यहां आंत्रप्रयन्योरशिप क्वेस्ट में जीत हासिल की तो हमने उसे इनामी राशि दी। उसने वह रकम बैंक में रख दी। और उसे हाथ लगाने से भी मना कर दिया। उसने इस पैसे को बैकअप मनी के तौर पर रखा। उसका कहना था कि यह पैसा उसे आत्मविश्वास देता है। फिर बाद में उस पैसे को उसने हमें दूसरी ऐसी ही किसी महिला को देने के लिए वापस कर दिया। उसका मानना था कि यह राशि आत्मविश्वास बढ़ाने का ज़रिया है।
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