“मैं अपनी जन्मजात पहचान के भीतर अपनी असली पहचान को जकड़ा हुआ महसूस करता हूं।” यह बात अपने जेंडर के संबंध में अमेरिका में पले बढ़े शिवी ने कही। दरअसल शिवी की जन्मजात पहचान तो एक लड़की की है। मगर वह अपनी इस पहचान के साथ अपने को नहीं जोड़ पाता।
शिवी का परिवार तब अमेरिका में बस गया था जबकि वह पांच साल का था। परिवार पढ़ा लिखा और समृद्द है। उन्होंने न केवल शिवी की इस नई पहचान को नामंजूर कर दिया बल्कि उस पर शारीरिक और मानसिक हिंसा की। पिछले करीब पंद्रह सालों से अमेरिका में रह रहे इस परिवार की सोच में कोई बदलाव नहीं आया। जेंडर की पहचान के मसले को यह लोग संस्कृति और समाज के खिलाफ मानते हैं। हद तो तब हो गई कि शिवी को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए भारत के एक शैक्षणिक संस्थान में भर्ती भी कराया गया।
इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला उम्मीद जगाने वाला है। जज ने पुलिस को ऐसे मसलों में संवेदनशीलता बरतने को तो कहा ही साथ ही यह भी कहा कि शिवी के साथ उसके घरवालों और पुलिस का रवैया कट्टरपंथी है जो भारत जैसे उदार देश की सोच के खिलाफ है। मगर दूसरी तरफ शिवी के परिवार का रवैया समाज की सोच का आईना है जो चिंताजनक है। उससे भी चिंताजनक यह है कि यह परिवार उस तबके का है जहां हम उम्मीद करते हैं सोच और समझ का दायरा ज्यादा बड़ा और बदलाव के प्रति खुला होगा।
समाज में हिंसा और अपराध को कम करने के लिए स्थापित पुलिस व्यवस्था में ऐसे मसलों के प्रति अपनाया जाने वाला असंवेदनशील रवैया निराशा पैदा करता है। ऐसे में न्याय व्यवस्था और पुलिस व्यवस्था दोनों को ही संवेदनशील होने के साथ बदलाव के प्रति खुले नजरिए से सोचना चाहिए।
जेंडर मसले पर कट्टरता नहीं संवेदनशीलता चाहिए
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