उत्तर प्रदेष के अम्बेडकर नगर के भीटी ब्लाक में सरईया गांव के लोगों ने स्कूल में दोपहर का खाना बनाने के लिए दलित महिला को न रखने की मांग की। लोगों ने धमकी यहां तक भी दी कि अगर स्कूल में दलित महिला ने खाना बनाया तो हम स्कूल में बच्चों को नहीं भेजेंगे। दोपहर के खाने के समय दलित और उच्च जातियों के बच्चों को अलग-अलग बैठे हुए देखना सामान्य है। ऐसे कई और मामले आसानी से मिल जाएंगे। इस माहौल में सोचने वाली बात है कि हाल ही में संसद में मंजूर हुआ खाद्य सुरक्षा विधेयक कितने लोगों को खाने का अधिकार दिला पाएगा। जहां एक तरफ देष के हर जरूरतमंद आम आदमी तक खाना पहुंचाने की सरकारी कोषिषें जारी हैं, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक स्तर पर जाति और खाने को लेकर अभी भी कई रूढि़यां जड़ जमाएं हैं। खाना हमारी पहचान से जुड़ा है। यही कारण है कि खाना, जाति और जेंडर तीनों आपस में गुंथे हुए हैं। कई खास खाने जाति से जोड़कर देखे जाते हैं। माना जाता है कि सुअर का मांस निचली जाति में भी सबसे नीचे की जाति ही खा सकती है। असल में कई स्वर्ण लोग भी इसे मज़े से खाते हैं। लेकिन इसके पीछे सामाजिक भेदभाव का ही नज़रिया झलकता है। जेंडर और खाने को लेकर बात की जाए तो मसला और भी उलझ जाता है। क्योंकि घर में खाना बनाने और खेत में काम करने की जि़म्मेदारी तो औरत की होती है। इन दोनों चीज़ों पर औरतों का सबसे कम अधिकार होता है। औरतें ढाबे में ना तो काम कर सकती हैं और न ही पुरुषों से अच्छा खाने का हक उन्हें दिया गया है। खेत में भी काम करने वाली औरतों को महिला किसान का दर्जा न तो समाज में मिला है और न ही सरकार ने दिया है।
जाती जेंडर और खाना
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