आजकल भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस की ओर से भारत माता को लेकर बड़ा शोर सुनायी दे रहा है। भाजपा के सेवानिवृत्त पितामह लालकृष्ण आडवाणी कह रहे हैं कि यह व्यर्थ का विवाद है तो दूसरी ओर बाबा रामदेव कह रहे हैं संविधान में संसोधन करके ‘भारत माता की जय’ कहने को अनिवार्य कर देना चाहिए।
कुछ दिन पहले एआईएमआईएम नेता असादुद्दीन ओवैसी ने कहा था कि वे ‘भारत माता की जय’ नहीं कहेंगे क्योंकि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, न ऐसा करने की कोई बाध्यता है। उसके पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी बता चुके हैं कि युवकों को देशभक्ति के नारे सिखाए जाने चाहिए।
इस मसले पर ओवैसी का इनकार जितना फिजूल है, उतनी ही फिजूल मोहन भागवत की सलाह है। वंदे मातरम और भारत माता की जय को हिंदू धर्म से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि, यह नारा लगाने से न ही किसी का धर्म भ्रष्ट होता है, न ही इन नारों से किसी की देशभक्ति तय होती है, न ही भारत माता की जय कह देने से मुसलमान हिंदू हो जाएंगे और न ही उनके नारा लगाने से वे ज्यादा देशभक्त साबित होंगे। इस तरह का विवाद वंदे मातरम को लेकर हो चुका है, जिसे गाने को लेकर कोई बाध्यता नहीं है। ऐसा अदालत भी कह चुकी है। देश के प्रतीकों को लेकर सम्मान प्रदर्शित करना जरूरी है, लेकिन उनको किसी पर थोपा नहीं जाना चाहिए।
आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर लड़ रहे थे। उस आंदोलन में जय हिंद, वंदे मातरम, इंकलाब जिंदाबाद आदि नारे लगाए जा रहे थे। भाजपा उसमें से एक धार्मिक प्रतीक चुनकर अभियान चलाने में लगी है। यह राम मंदिर, बीफ या दूसरे धार्मिक विवादों की एक कड़ी भर है, जिसे वह राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करती है। भारत माता की जय, तिरंगा या वंदे मातरम पर विवाद खड़ा करना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस लेख को खबर लहरिया की पत्रकार प्रियंका सिंह ने लिखा है। यह लेख उनकी राय और अनुभव पर आधारित है।