सेहतमंद मां और बच्चों की जब हम बात करते हैं तो उसके लिए सेहतमंद समाज की कल्पना करना ज़रूरी है। कुपोशण, गर्भावस्था के दौरान दिक्कतें, प्रसव के समय मौत, विकलांगता – इन दिक्कतों का सबसे ज़्यादा सामना करती हैं गरीब तबके की लड़कियां और औरतें। इनमें से ज़्यादातर समाज में नीची मानी जाने वाली जातियों से होती हैं।
जहां सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं को मज़बूत करने की बात कर रही है, वहीं सेहतमंद मां और बच्चों के लिए समाज में सोच को भी मज़बूत करना ज़रूरी है। इसके लिए आदमियों की बराबरी की भागीदारी ज़रूरी है। घर के काम का बराबर बंटवारा कम ही होता है। अक्सर औरतें बाहर भी काम करती हैं और घर में भी। यही औरतें बीमार और कुपोशित बच्चों की देखभाल करती हैं। हमारे सामने कुछ ऐसे उदाहरण सामने आए जहां औरतें अपने बच्चों को घर के काम की वजह से एन.आर.सी. तक नहीं ले जा सकतीं, या बूढ़ी कमज़ोर दादी अपनी पोती की देखभाल कर रही हैं। चित्रकूट के बैहार गांव की राजाबाई अपनी अतिकुपोशित लड़की को पोशण पुनर्वास केंद्र नहीं ले जा सकती क्योंकि उनके घर का काम कौन सम्भालेगा। क्या इन जि़म्मेदारियों में आदमियों का कोई उत्तरदायित्व नहीं है?
कुछ ऐसे उदाहरण भी आए जहां अस्पताल दूर होने पर लड़कों के इलाज के लिए परिवार जाते हैं पर लड़कियों के लिए नहीं। किषोरियों के स्वास्थ्य के बारे में बात भी नहीं की जाती है जबकि यही किषोरियां आगे जाकर मां बनती हैं। इनके स्वास्थ्य पर तो खास ध्यान देना चाहिए। छत्तीसगढ़ राज्य में नसबंदी के दौरान हुई औरतों की मौत इसी सोच का हिस्सा है। क्या नसबंदी कराना सिर्फ औरतों की जि़म्मेदारी है?
अस्वस्थ सोच के साथ सेहतमंद मां और बच्चों से जुड़े प्रयास अधूरे रह जाते हैं। यह ज़रूरी है कि संस्थाएं, सरकार और हम सब इस भेदभाव आधारित सोच को बदलेंगे तब ही यह ज़माना बदल पाएगा।
जब बदलेगी सोच, तब बदलेगा ज़माना
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