श्रुति रविन्द्रन मुम्बई में रहने वाली पत्रकार है। वो विज्ञान, स्वास्थ्य वातावरण और विकास के मुद्दों पर लिखती है। आपको तो पता ही है कि भारत में गोरी त्वचा को पूजा जाता है। मगर क्या आपको पता है कि लगभग 2.8 करोड़ भारतीय अपनी गोरी त्वचा को वरदान नहीं बल्कि अभिशाप मानते हैं।
मैं बात कर रही हूं वीटिलिगो (ल्यूकोडर्मा) की। इसे फुलेरी, श्वेत पात या सफेद दाग नाम से भी जाना जाता है। ये त्वचा रोग एक उजले धब्बे के साथ अक्सर युवावस्था में शुरू होता है। जो बाद के सालों में पूरे शरीर पर फैल सकता है। अभी तक इसके फैलने को रोकने के लिए कोई इलाज नहीं निकल पाया है। शोधकर्ताओं को पक्के तौर पर नहीं पता है कि कैसे ये रोग शुरू होता है और कैसे फैलता है। इसके तीन स्पष्टीकरण हो सकते हैं – आनुवंशिक कारण, विषैले तत्वों (टॉक्सिन्स) से होने वाले नुक्सान को शरीर द्वारा ठीक न कर पाना, इम्यूनिटी के हमले से शरीर में त्वचा का रंग बनाने वाली कोशिकाओं मेलानोसाइट का मर जाना।
वीटिलिगो जानलेवा नहीं होता, और न ही इसमें तकलीफ होती है। मगर भारत में जिनको ये होता है उनके लिए बहुत तकलीफदेह बन जाता है। हमारे गहरे रंग की त्वचा पर ये सफेद धब्बे दूर से ही नज़र आते हैं। ये अंधविश्वास है कि वीटिलिगो से ग्रसित लोगों के सफेद दाग पड़ते हैं क्योंकि उन्होंने पिछले जन्म में बहुत बड़ा पाप किया होता है। इससे भी बुरा ये है कि इसे अक्सर कोड़ समझ लिया जाता है जो भारत में इससे भी ज़्यादा कलंकित है।
इसका नतीजा ये होता है कि वीटिलिगो रोगियों को रोज़ भेदभाव झेलना पड़ता है। मैंने पुणे, मुम्बई, चेन्नई के एक्टिविस्ट और वीटिलिगो रोगियों से कुछ हफ्ते पहले कई दुखभरी कहानियां सुनीं। एक छात्र को उसके हास्टल से निकाल दिया गया जबकि उसने पूरे टर्म की फीस भर दी थी। एक औरत को मंदिर में घुसने से रोक दिया गया।
एक वेटर लगातार अपने हाथों पर मेंहदी लगाए रहता है ताकि उसके ढ़ाबे में आने वाले लोग उसके हाथों से खाना ले लें। एक बूढ़ा आदमी जिसकी दाढ़ी के नीचे छोटा सा सफेद दाग है मर जाना चाहता है क्योंकि उसकी तीन बेटियों की शादी नहीं हो पा रही है जबकि उन तीनों की सुन्दर त्वचा है। तो इसमें आश्चर्य नहीं कि मनोविज्ञानकों द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि भारत में वीटिलिगो रोगियों का चैथाई हिस्सा एंक्ज़ाईटी, डिप्रेशन और आत्महत्या के विचारों से ग्रसित है।