हाल में कुछ खबरें ऐसी आईं जिन्होंने जेंडर आधारित भेदभाव जैसे मुद्दे के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। कहीं ज़्यादा उम्र और माहवारी के बंद होने को आधार बनाकर एक महिला के खिलाफ हुई यौन हिंसा पर फैसला दिया गया तो कहीं महिला मुक्केबाजों के गर्भ की जांच करवाई गई। इस बीच एक अच्छी खबर भी आई। पिछले साठ सालों से भारतीय सिनेमा में महिला मेकअप आर्टिस्टों को मान्यता नहीं थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खत्म कर दिया।
भारत का सविंधान औरतों और पुरुष के बीच किसी तरह का अंतर करने के खिलाफ है। आर्टिकल 14 में साफ कहा गया है कि कानून के आगे सब बराबर होंगे। जाति, धर्म, जन्म के स्थान और जेंडर के आधार पर कानून भेदभाव नहीं करेगा। आर्टिकल 16 के अनुसार नौकरी पेशा में इनके आधार पर भेदभाव नहीं होगा। यानी जेंडर आधारित भेदभाव संविधान में दिए गए अधिकारों पर सवाल खड़ा करते हैं।
क्या जेंडर आधारित भेदभाव चाहें वह समुदाय के बीच हो या फिर नौकरी पेशा में जनता को मिले संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी नहीं हैं ? किसी भी व्यवस्था में यह देखना जरूरी नहीं है कि औरत को माहवारी हो रही है या नहीं और वह गर्भवती है या नहीं- न तो कानूनी फैसलों का यह आधार हो सकता है और न ही खेल या नौकरी से सम्बंधित मुद्दों का। दोनों मुद्दों में भेदभाव औरत की यौनिकता से जुड़े मुद्दों के आधार पर हो रहा है। कानून संविधान के बताए मूल्यों और मौलिक अधिकारों के आधार पर बनाया गया है, लेकिन जब हाईकोर्ट जैसी संस्थाएं इस कानून को अपने आधार पर भेदभाव करने के लिए इस्तेमाल करती हैं तो यह अफसोसजनक है।
जगह-जगह जेंडर आधारित भेदभाव
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