प्रिय पाठकों, पिछले हफ्ते यानी मई 31 को खबर लहरिया अख़बार की चौदहवीं सालगिरह थी। हमारे सफ़र में हमने कई पड़ाव पार किये हैं, कई चुनौतियों का सामना किया है। इस अखबार की शुरुआत सात महिलाओं ने की थी, आज हम तीस महिलाएं हैं, जो बुंदेलखंड में पत्रकारिता करती हैं।
मई 31, 2002 को खबर लहरिया का पहला अंक छपा था, ताज़ा-ताज़ा खबरें थी, वह भी अपनी स्थानीय भाषा में। इस अखबार को शुरू करने के कुछ उद्देश्य थे- पत्रकारिता में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना। दूसरा उद्देश्य यह था की हमारी खबरों की आवाज़ उन ग्रामीण इलाकों तक पहुंचे जहां न्यूज़ की आवाज़ नहीं गूंजती थीं। तीसरा उद्देश्य यह था कि हम दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक लोगों की खबरों को प्राथमिकता दें।
खबर लहरिया सिर्फ बुंदेलखंड का नहीं, बल्कि देश का इकलोता ऐसा अख़बार है जिसे महिलाएं चलाती हैं और जो लोगों की क्षेत्रिये भाषा में छपता है। शुरुआत में खबर लहरिया एक साहसिक प्रयोग थां। लेकिन आज उसी प्रयोग को राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय सम्मान मिला है।
2006 में हमने खबर लहरिया का दूसरा एडिशन बांदा से शुरू किया। 2010 में खबर लहरिया की लहर बिहार तक पहुंची और हमने सीतामढ़ी जिले से तीसरा एडिशन छापना शुरू किया। दो साल बाद, हमने तीन और एडिशन शुरू किये-फैजाबाद, बनारस और महोबा।
जैसे-जैसे हम पड़ाव पार कर रहे थे, वैसे ही हमें कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। तब भी और आज भी उत्तर प्रदेश में महिला पत्रकारों के लिए कोई जगह नहीं है। हर दिन हमे पितृसत्तात्मक विचारों का सामना करना पड़ता था। लेकिन इन चौदह सालों में हम पीछे कभी नहीं हटे।
खबर लहरिया में हमने कुछ ख़ास मुद्दों पर लगातार पत्रकारिता की है। 2004 में हमने लोकसभा चुनाव, 2005 और 2015 में पंचायत चुनाव पर रिपोर्टिंग की। सूखे और विकास के मुद्दों पर हमारी नज़र हमेशा बनी रही। महिला हिंसा पर भी निष्पक्ष रिपोर्टिंग चली है। 2004-05 में ददुआ के खौफ में भी हमने बेझिझक जंगली इलाकों से रिपोर्टिंग की है।
प्रिय पाठक, आज एक बार फिर खबर लहरिया एक पड़ाव पार कर रहा है। जो महिलाएं पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी, आज वह स्मार्टफ़ोन से विडियो रिपोर्टिंग भी कर रही है। इस अंक में हम आपको अपने सफ़र की झलकियां दिखाना चाहते हैं। 2006 में खबर लहरिया ने चित्रकूट जिले के 24 गांवों में पलायन पर सर्वे किया था। दस साल बाद, हम फिर उन गांवों में इस समस्या का मूल्यांकन करने पहुंचे। इतना ही नहीं, इस अंक में बहुत सारी और खबरें भी हैं, जो हमारी पत्रकारिता का आभास कराती हैं। उम्मीद है आपको इस अंक को पढ़ने में उतना ही आनंद आएगा, जितना हमें इन खबरों को लिखने में आया है।
संपादक
मीरा जाटव
खबर लहरिया में मेरा सफर 15 अगस्त, 2007 से शुरू हुआ था। इस सफर में कई खुबसूरत पल आये जिनमें से एक यहां दे रही हूं।
यह बात तब की है जब हम गोवा गये थे। वहां बहुत गर्मी थी लेकिन मुझे समुद्र की लहरें देखने की बेचैनी हो रही थी। मैंने रेत में घर भी बनाया। चाहती तो थी कि लहरों में जा कर खूब खेलूं लेकिन मुझे तैरना नहीं आता था। गोवा में चार दिन का सफर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। यह मेरे लिए सबसे यादगार सफर रहा क्योंकि मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं कभी समुद्र को इतनी करीब से देख पाउंगी।
-तबस्सुम, चित्रकूट
यह अनुभव मेरे लिए सबसे यादगार है क्योंकि इस एक वाकये ने मुझे खबर लिखना सीखा दिया था। सबसे पहले मैं जिस गांव में रिपोर्टिंग करने पहुंची, उसका नाम था कोठिया। अचानक से मुझे अपनी ओर आता देख लोगों का ध्यान मेरी तरफ ही हो गया था। मुझे इससे पहले किसी ने देखा नहीं था। मैं सर पर पल्लू रखे हुए, खुद को समेट कर, झिझक के साथ अपना परिचय उन लोगों को दे रही थी। मैं पहली बार घर से निकली थी इसलिए घबराहट के कारण जबान भी कांप रही थी। सब ने मुझे घेर लिया। लोगों को आश्चर्य भी हो रहा था कि मैं एक पत्रकार हूं। तभी उनमें से एक महिला ने बताया कि उनके भैंस का बच्चा खो गया था। वो मिल तो गया है लेकिन उसको चुराने वाला धमकी दे रहा है। उस महिला ने पुलिस में एफआईआर भी करायी थी। लेकिन फिर भी वो आदमी देने को तैयार नहीं था। जब पुलिस और पंचायत ने दोनों पक्षों को बुलाया तो दोनों बच्चे पर अपना अधिकार जताने लगे। तभी किसी को सुझा कि इसकी पहचान तो आसान है कि दोनों अपनी भैंस ले आएं। बच्चा जिसके पास जाएगा वो उसी का होगा और हुआ भी यही। बच्चा अपनी मां से जा कर लिपट गया, साथ ही अपने मालिक के पास जा के प्यार से लोटने लगा। ये थी मेरी पहली खबर जो आज भी याद कर मुझे गुदगुदा जाती है।
लक्ष्मी शर्मा, लखनऊ
मेरे काम की शुरुआत अगस्त 2012 में हुई थी। इस बीच मुझे कई अच्छे अनुभव हुए। ऐसा ही एक अनुभव हमारी खबर के असर के रूप में मुझे याद आता है। बात 2013 की है। जब हमारी खबर पर चोलापुर के संदहा गांव में ख़राब हैंडपंपों को जल्द ही ठीक करा दिया गया। गांव में कई महीनों से हैंडपंप खराब पड़े थे। जिसकी खबर हमने लगाई थी। इसके बाद जब हम दौबारा उस गांव में पेपर वितरण के लिए गये, तब तक हैंडपंप बन चुके थे। वहां के लोग खुश हुए। लेकिन उस गांव का प्रधान हम पर बहुत गुस्सा हुआ और बोला- क्यों ऐसा लिखा, देखिये हैंडपंप बनवा दिया है। इसके बाद से गांव के लोग हमारी बहुत इज्जत करने लगे।
-रिजवाना, बनारस