हाल में एक किताब आई है ‘अबलाओं का इन्साफ’। इसकी लेखिका हैं स्फुरना देवी। आप सोचेंगी कि इसमें कौन सी नई बात है। औरत तो अबला यानी कमज़्ाोर ही है। उसे कभी इंसाफ भी नहीं मिलता। दरअसल इस किताब को खास बनाता है इसका समय और इसकी बातें। 1927 में यह इलाहाबाद की मशहूर पत्रिका ‘चांद’ के कार्यालय से छपी थी। इसे खोजकर निकाला है, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की नैया नाम की छात्रा ने।
‘अबलाओं का इन्साफ’ हिंदी में छपी किसी लेखिका की पहली आत्मकथा है। किताब की शुरुआत में स्फुरना देवी ने लिखा है कि यह कोई धर्म की गाथा, नाटक या कविता नहीं है। यह है अत्याचार से पीडि़त महिलाओं की आत्मकथा और उनकी करुणा भरी अपील यानी दुख से भरी गुहार है। उन्होंने खासकर ऊंची जाति की औरतों की कहानी कही है। उनको मालूम था कि महिलाओं की खराब दशा पर बहुत सारे पुरुषों ने लिखा है, मगर इस बारे में औरत का खुद लिखना बहुत ज़्ारूरी है। वह पूछती हैं, ‘जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’। यानी औरत के दर्द को औरत से बेहतर कौन समझ सकता है।
इलाहाबाद की ‘चांद’ पत्रिका में महिलाओं के कई लेख छपते थे। उनमें महिलाओं की आपबीती होती थी। इसने स्फुरना देवी को हौसला बढ़ाया। उन्होंने महिलाओं के लिए इंसाफ की आवाज़्ा उठाई। ठीक इसी तरह खबर लहरिया भी न जाने कितनी स्फुरना देवी को साहस देता होगा कि अपनी आवाज़्ा बुलंद करो!
साल 1927 में अपने लेखों के ज़्ारिए स्फुरना देवी ने कहा कि हमारे समाज में महिलाओं को जानवरोें जितना भी आदर नहीं मिलता। इसीलिए यहां दोबारा जन्म लेना भी सज़्ाा है। आज लगभग सौ साल बाद समाज में औरतों की हालत पर नज़र डालें तो दिखेगा कि स्थिति बदली है, मगर बहुत सारे मामलों में जस की तस है। इसलिए ऐसे मुद्दों पर लिखना आज भी बेहद ज़्ारूरी है।
पूर्वा भारद्वाज लंबे समय से जेंडर, शिक्षा, भाषा आदि मुद्दों पर काम कर रही हैं। साहित्य में उनकी खास रुचि है। इन दिनों वे दिल्ली में रह रही हैं।