करुणा नंदी उच्चतम न्यायालय की वकील हैं। इन्होंने 2012 के आंदोलन से उभरते कानूनी बदलाव पर काम किया था। वे महिला आज़ादी घोषणापत्र की एक संस्थापक हैं। करुणा भोपाल काण्ड, न्यायिक नीतियां, कई कंपनियों और संयुक्त राष्ट्र की वकालत भी करती हैं।
बुधवार 1 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने 2008 के यौन हिसा के एक केस पर अपना फैसला सुनाया। केस में मध्य प्रदेश के मदनलाल पर सात साल की लड़की के साथ यौन हिंसा करने का आरोप था। कोर्ट ने यह तय किया कि ऐसे मामले में आरोपी और लड़की के बीच किसी भी तरह का ‘समझौता’ नहीं हो सकता है जिससे आरोपी को कम सज़ा मिले।
फैसला सुनाते समय जजों ने यह भी कहा कि औरत का शरीर उसका मंदिर होता है। इसपर हमला हो तो औरत की इज़्ज़त पर कलंक लग जाता है। इज़्ज़त जि़्न्दगी का सबसे कीमती ज़ेवर है। जब किसी इंसान का जिस्मानी ढांचा अशुद्ध हो जाता है तब उसका ‘सबसे पवित्र खज़ाना’ खो जाता है।
हमारे देश में न्याय के नियम भारत के संविधान से उभरते हैं। इनमें आज़ादी, अपने निर्णय खुद लेने का अधिकार, शारीरिक स्वाधीनता और संबंधों में सहमति जैसे मूल्य शामिल हैं। इन मूल्यों के आधार पर चलें तो शादी के रिश्ते में बलात्कार अनिवार्य रूप से गैर कानूनी होगा, ‘औरत की लज्जा भंग करना’ भी सरासर गलत होगा। अगर माननीय कोर्ट का मदनलाल के केस में निर्णय दूसरे शब्दों में होता, तो कैसा होता?
‘यह औरत की शारीरिक और संविधानिक आज़ादी पर हमला है। संविधान का आर्टिकल 21 – औरत की आज़ादी का जन्मसिद्ध अधिकार, जब वो खुद तय कर सकती है कि मुक्केबाजी के खेल में पिटना चाहती है या किसी अन्य जाति या धर्म के आदमी के साथ सम्बन्ध बनाना चाहती है। आर्टिकल 19 – वह अधिकार जिससे औरत तय कर सकती है कि वो आधी रात में सैर के लिए चल पड़े या ट्रक चलाए या अपनी पंचायत का नेतृत्व करे या खुद से शक्ति के रूप में भगवान तक से चर्चा करेय आर्टिकल 14 – समानता का अधिकार, जिससे अलग -अलग जेंडर के सभी नागरिकों को पूरी तरह की असली समानता मिलती है। एक औरत की आज़ादी हमारा सबसे पवित्र खज़ाना है। अधिकारों के इस स्वर्ण त्रिकोण में हमारे सबसे कीमती ज़वर हैं। इनके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता है।’
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