अपेक्षा वोरा का कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़ाव रहा है। 2014 में दिल्ली की निरंतर संस्था ने सात राज्यों में बाल विवाह और कम उम्र में युवाओं की हो रही शादियों पर एक रिपोर्ट तैयार की। अपेक्षा भी इस टीम का हिस्सा थीं।
विवाह सभी की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अमीर-गरीब, लड़का-लड़की, शिक्षित-अशिक्षित, ग्रामीण या शहरी, आप जो भी हों, आपका सामना कभी न कभी विवाह से जुड़े सवालों से जरूर होता है। कब, कैसे, किसके साथ, क्यों, करनी भी है या नहीं। हमें पता है कि इनके कोई सीधे-सरल जवाब नहीं हैं।
निरंतर के जल्द और बाल विवाह पर हुए अध्यन में हमने इन सवालों को गहराई से समझना चाहा। सात राज्यों में घूमकर सैकड़ों लोगों सवाल किए। शादी इतनी महत्पूर्ण क्यों है? इसका फैसला कौन लेता? वगैरहा वगैरहा…। कई जवाब निकलकर आए। लेकिन इन जवाबों से बना एक किस्सा मन में बस गया। शाम का समय था। गांव के सभी पुरुष फुर्सत में बैठे थे। हमने उनसे बातचीत शुरू की। उनका कहना था ‘विवाह होता है क्योंकि समाज की यही रीति है।’ हमने पूछा तो इसके बारे में निर्णय कौन लेता है? जवाब मिला समाज ही लेता है। फिर पूछा, इसका सबसे ज्यादा असर किस पर पड़ता है? सटीक जवाब मिला लड़की और लड़के पर। हमने थोड़ा और जोर देकर कहा कि लड़कों पर भी! जवाब मिला ‘हां हां अगर गलत शादी हो गई तो पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।’
इस आखिरी बात से सभी सहमत थे। इस पर लंबी चर्चा हुई। अंत में हमने पूछा-अगर लड़का और लड़की पर इतना गहरा असर पड़ता है तो क्या विवाह का फैसला उन्हीं का नहीं होना चाहिए? पर इस सवाल पर एकमत जवाब मिला। ‘नहीं यह फैसला समाज का है। फिर सब हंस पड़े।’ काश मैं उनकी इस हंसी का मतलब समझ पाती? मेरे मन मे ऊहापोह थी कि जब यह पता है कि इस फैसले का सबसे ज्यादा असर लड़का लड़की पर पड़ता है, फिर भी इस फैसले का अधिकार समाज को क्यों है? हम आगे निकल पड़े कुछ और लोगों से मिलने।
निकलते निकलते एक सज्जन ने कहा चर्चा करके अच्छा लगा। आप लोग आए तो हमें सोचने का मौका मिला और नई बातें पता चलीं। पर आज तक मैं सोचती हूं क्या हमारी इन बातों का असर उन पर कुछ पड़ा होगा? क्या अगली बार विवाह का फैसला लेने में लड़का और लड़की की कोई भूमिका होगी?