अनिता भारती चर्चित कहानीकार आलोचक व कवयित्री। सामाजिक कार्यकर्ताए दलित स्त्री के प्रश्नों पर निरंतर लेखन। युद्धरत आम आदमी के विशेषांक स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण की अतिथि संपादक। अपेक्षा पत्रिका की कुछ समय तक उपसंपादक। समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध (आलोचना पुस्तकद्ध) एक थी कोटेवाली (कहानी.संग्रह) यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियां (संयुक्त संपादन) यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (संयुक्त संपादन) स्त्रीकाल के दलित स्त्रीवाद विशेषांक की अतिथि संपादक । श्रूखसाना का घरश् तथा श्एक कदम मेरा भीश् (कविता संग्रह) सावित्रीबाई फुले की कविताएँ (सम्पादन) कदम पत्रिका का अम्बेडकरवादी विचारक डॉक्टर तेज़ सिंह पर डॉक्टर तेज़ सिंह विशेषांक की अतिथि संपादक।
दलित औरतों की स्थिति दूसरी औरतों के मुकाबले बेहद खराब है। आप देखिए सामाजिक हिंसा सबसे ज़्यादा दलित औरतों को ही झेलनी पड़ती है। डायन प्रथा का सामना सबसे ज़्यादा दलित औरतें ही करती हैं। मध्य प्रदेश की बेड़नी प्रथा हो या जिंदा जलाने और बलात्कार की घटना हो या फिर नंगा घुमाने की खबर। इन सबका शिकार दलित औरतें ही होती हैं। ऐसी न जाने कितनी प्रथाएं हैं जो केवल दलित औरतों के लिए ही बनाई गई हैं। भूमिहीन मज़दूर सबसे ज़्यादा दलित औरतें ही हैं। मैला ढोने का काम भी दलित औरतें ही करती हैं। मैला खिलाने जैसी घृणित और मानव बिरादरी को शर्मशार करने वाली घटनाएं दलित महिलाओं के साथ रोजाना घटती हैं। कुल मिलाकर दलित औरतें आज भी अपने साथ हो रही बदसलूकी और किए जा रहे भेदभाव से जूझ रही हैं।
औरतों के लिए लंबे समय से आंदोलन चल रहे हैं। मगर इनमें दलित औरतों के मुद्दों को कहीं भी महत्तव नहीं दिया जाता। छुआछूत का मुद्दा, पानी का मुद्दा, मंदिर में प्रवेश का मुद्दा- यह ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें मुख्य धारा के महिला आंदोलन में उठाया ही नहीं जाता। यही कारण है कि दलित महिला आंदोलन की ज़रूरत पड़ी। ऐसा नहीं है कि केवल आम दलित महिलाएं ही इस हिंसा या भेदभाव का शिकार हैं। अपनी प्रतिभा और जुझारु तेवरों के कारण ऊंचे पद पर पहुंची औरतें भी यही भेदभाव झेल रही हैं। चाहे नेता हों या फिर दलित महिला लेखक सभी का मज़ाक उड़ाया जाता है। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का मज़ाक जिस तरह से उड़ाया गया और जिस तरह से आज भी उड़ाया जाता है, इससे दलित औरतों के हालात समझे जा सकते हैं। अफसोस जनक यह है कि बाकी औरतें भी दलित औरतों का शोषण करती हैं। औरतों के बीच में ही जातीय व्यवस्था खुलकर दिखती है। प्रेमचंद जैसे लेखक ने बेहद संवेदनशीलता के साथ ठाकुर का कुआं कहानी में जिस तरह से दलित समस्या को उठाया था, यकीन मानिए कमोबेश हालात ऐसे ही हैं। लेकिन आज प्रेमचंद जैसे लेखक नहीं हैं जो दलितों की समस्या को उनके सही रूप में कह सकें। इसीलिए दलित लेखकों की ज़रूरत पड़ी।
बाकी महिला लेखकों को इन मुद्दों पर लिखने में कोई रुचि नहीं है। हालांकि इस सारे भेदभाव के बावजूद दलित औरतें अपनी लड़ाई लड़ रही हैं और आंदोलन को दिशा दे रही हैं। बाबा भीमराव अंबेडकर, ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले तारा बाई शिंदे, पेरियार इस आंदोलन के प्रेरणा स्त्रोत हैं। स्थिति अभी बहुत तो नहीं सुधरी है, शिक्षा का स्तर आज भी दलित समुदाय में बहुत कम है। उन्हें प्रशासन या दूसरी संस्थाओं से कोई सहयोग भी नहीं मिलता है। बावजूद इसके आज औरतें अच्छे पदों पर पहुंच रही हैं, आंदोलन चला रही हैं, लिख रही हैं।
आप लेखकों की बिरादरी में भी यह भेदभाव साफतौर पर देख सकते हैं। वंचित तबके की महिला लेखकों को मुख्यधारा के लेखक अपने साथ ही नहीं बैठाना चाहते। जब प्रतिनिधित्व की ज़रूत पड़ती है तो कहीं भी दलित महिला लेखक का नाम नहीं लिया जाता। मैंने जब दलित स्त्रीवाद पर लिखना शुरू किया तो दूसरी महिला लेखकों ने सवाल उठाए। हमारी एक साथी ने कहा कि आप नया आंदोलन क्यों खड़ा करना चाहती हैं? क्या ऐसा करके नाम कमाना चाहती हैं? दरअसल जब लिखने की बात आती है दूसरे तबके के लेखकों को लगता है कि लिखना तो हमारी बपौती है। भला कोई दलित स्त्री लेखन कैसे कर सकती है? दलित औरतों के लेखन के मुद्दों पर भी सवाल उठते हैं कि क्या आप गुज़रे ज़माने की बातें लिख रही हैं? अभी भी वहीं अटकी हैं? वगैरह वगैरह। लेकिन हमारे लेखन में वह समस्याएं झलकती हैं जिससे हम जूझते आ रहे हैं। जाति उत्तपीड़न, दैहिक शोषण, गैरबराबरी। बाकियों के लिए यह मुद्दा नहीं है क्योंकि वह इन समस्याओं से गुज़रती नहीं। हमारे लिए तो यह आज भी मुद्दा है। कई सालों पहले का एक वाकया है जिसका जि़क्र ज़रूरी है। हमारे एक साथी लेखक हैं। उन्हें काफी प्रगतिशील लेखक भी कहा जाता है। उन्होंने मुझे देखकर कहा कि मायावती तो कुछ कर नहीं रहीं। मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं दलित हूं इसलिए यह सवाल मुझसे ही पूछा जाना चाहिए? मैंने तो आपसे कभी नहीं पूछा कि वृंदा करात क्या कर रही हैं?
हमारी मांग कभी भी एक अलग भारत की नहीं है। बल्कि मैं तो एक समग्र महिला आंदोलन की कल्पना करती हूं जहां पर हर वर्ग और हर जाति की औरतों के मुद्दों को बराबरी से उठाया जाए।