ऋतुपर्णा बोराह जेंडर और यौनिकता के मुद्दे पर करीब दस सालों से काम कर रही हैं। इन मुद्दों पर वह प्रशिक्षण देने और पैरवी करने का काम भी करती हैं।
इन दिनों माहवारी या ज्यादा चलताऊ नाम इस्तेमाल करें तो पीरियड की चर्चा खुलेआम हो रही है। कई आंदोलन चल रहे हैं। लड़के लड़कियां सड़कों पर उतरकर इसे छिपाने और इसको लेकर बनी धारणाओं के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। यह देखना बेहद मजेदार भी है और चौकाने वाला भी। क्योंकि यह हमेशा से एक ऐसा मुद्दा रहा है जिसे आधार बनाकर औरतों और लड़कियों के साथ कई तरह के भेदभाव किए जाते रहे हैं। इस पर खुलकर चर्चा होने की जगह खुसर-फुसर ही होती रही है।
लेकिन हमेशा से दबे इस मुद्दे पर बुलंद हुई आवाजें सुनकर मुझे अपने बचपन की याद आ गई। मैं आसाम के एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं। मां ने मुझे इस माहवारी के बारे में तबसे चेताना शुरू कर दिया था जब मुझे माहवारी होती भी नहीं थी। उन्होंने मुझसे कह रखा था कि जैसे ही तुम्हें खून दिखे तुम मुझे फौरन बताना। और एक दिन जब मैंने अपनी चड्ढी में खून देखा तो मैं डर गई। घंटों मैंने इसे छिपाए रखा। फिर मुझे अपनी मां को बताना ही पड़ा। मेरी मां ने यह सुनते ही रोना शुरू कर दिया। मुझे आज तक नहीं समझ आया कि वह आखिर रोईं क्यों थीं?
मेरी मां की सहेलियां और रिश्तेदार औरतें इकट्ठी की गईं। मुझे एक एकांत जगह पर रखा गया। सख्त हिदायत दी गई कि मैं इस कमरे से बाहर न जाऊं। तीन दिनों तक मुझे ऐसे ही अलग थलग रखा गया। मेरी दादी और जानने वाली सारी औरतों ने मां से कहा कि दिन में केवल दो बार ही मुझे कच्चा खाना दें। पर मेरी मां चोरी छिपे मुझे एक बार पका खाना दे देतीं थीं। मुझे मर्दों से दूर रखा गया। मैं उस समय कक्षा छह में थी। मुझे स्कूल भी नहीं जाने दिया गया। चौथे दिन एक छोटा सा समारोह कर मुझे नहलाया गया। औरतों ने बिया नाम यानी शादी में गाए जाने वाले स्थानीय गीत गाए। मेरे पिता एक धार्मिक व्यक्ति को लेकर आए। उन्होंने पहले पूजा कि फिर मेरा भविष्य बताया। यह एक ऐसा व्यक्ति होता है जो माहवारी की शुरुआत होने के समय के आधार पर लड़की का चरित्र और उसका भविष्य बताता है। इसे जोग कहते हैं। अंदाजा लगाईये कि मुझे कौन सा जोग उस व्यक्ति ने बताया! उसने मुझे वैश्या जोग बताया। मेरी मां तो पागल हो गईं। इस तरह के जोग के साथ पैदा हुई लड़की को चरित्रहीन समझा जाता है। मेरे इस जोग के खराब प्रभाव को रोकने के लिए मुझे पैंतालिस दिनों का उपवास रखवाया गया। सोने का हंस और चेन दान करवाई गई। माहवारी के नौवें दिन मुझे घर से बाहर निकलने की अनुमति दी गई। यह समय एक समारोह का था। पूरे गांव को बुलाया गया। मेरे रिस्तेदार और गांव वाले खुसर फुसर कर रहे थे। कह रहे थे कि आखिर इतने शरीफ मां बाप की लड़की को यह जोग कैसे हो गया। मुझे भी लग रहा था कि मैं अपने मां बाप की शर्मिंदगी का कारण बनी हूं। इस समारोह में बहुत स्वादिष्ट खाना बना था। मगर मुझे दही और कुछ उबला हुआ खाना ही दिया गया। मुझे पूरे पैंतालिस दिन मांसाहार और तले भुने खाने से दूर रखा गया। मुझे याद है कि जब मेरे कपड़े धुले जाते थे तो उसमें बहने वाले उस खून से मुझे बहुत डर लगता था। मुझे इस कदर कोफ्त होती थी कि मैं मर जाना चाहती थी। मैंने ऐसी दवाईयों की तलाश भी की जिनसे यह माहवारी रुक जाए। माहवारी के दिनों मेरा बिस्तर, मेरे खाने की मेज अलग कर दी जाती थी। रसोंई के अंदर जाने पर रोक लग जाती थी।
जब मैंने अपना घर छोड़ा था तब मैं सोलह साल की थी। लेकिन आज भी शायद घर में इस मुद्दे पर मैं इतनी खुली चर्चा न कर पाऊं!यह सही है कि अगर दिल्ली में वह मेरे साथ रहने आएंगे तो मैं साफ कह सकती हूं कि अपनी तरह से रहूंगी। मगर गांव जाकर मैं इतना खुला विरोध करने में सक्षम नहीं हूं। शायद आज भी ! जब मैंने यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य एवं हकों पर काम करना शुरू किया तब मुझे एहसास हुआ कि इस मुद्दे खुलकर बात और बहस होनी बहुत जरूरी है।
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