करुणा नंदी उच्चतम न्यायालय की वकील हैं। इन्होंने 2012 के आंदोलन से उभरते कानूनी बदलाव पर काम किया था। वे महिला आज़ादी घोषणापत्र की एक संस्थापक हैं। करुणा भोपाल काण्ड, न्यायिक नीतियां, कई कंपनियों और संयुक्त राष्ट्र की वकालत भी करती हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक बड़ा फैसला सुनाया। यह फैसला उन औरतों के लिया बहुत मायने रखता है जो बिना शादी किए मां बनी और अपने बच्चे की मुख्य अभिभावक बनना चाहती हैं।
जस्टिस विक्रमजीत सेन की बेंच ने कहा कि एसे मामले जहां महिला ने शादी नहीं की है वहां बिना पिता की मंज़्ाूरी के महिला बच्चे की अभिभावक बन सकती है। उन्होंने ‘चाइल्ड राइट कन्वेंशन’ यानी बच्चों के हकों के लिए हुए एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते का हवाला भी दिया। इसके अनुसार किसी भी कानूनी या सरकारी कार्यवाही में बच्चे के हित को प्रमुखता दी जाएगी। इस समझौते को दुनिया के लगभग सभी देश मानते हैं। इस मामले में भी जब मां ने शादी ही नहीं की है तो पिता को नोटिस न देना बच्चे के ही हित में है। पिता को तो बच्चे के बारे में पता भी नहीं है। इस फैसले से पहले ‘गार्डियन्स एंड वार्डस एक्ट एंड हिंदू गार्डियनशिप एक्ट’ यानी कानून के तहत पिता की मंज़ूरी ज़रूरी मानी जाती थी।
सत्र न्यायालय और दिल्ली हाई कोर्ट में हक न मिलने के बाद इस महिला ने 2011 में सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दाखिल की थी। महिला को भी न्याय भी मिला। मगर अभी गार्डियनशिप ला यानी अभिभावक बनने के कानून में मां और पिता के अधिकारों में समानता लाने के लिए और बदलाव करने बाकी हैं। यह बात 2015 की ला कमीशन यानी कानून में सुधार करने वाली संस्था की रिपोर्ट में भी कही गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘हिंदू माइनारटी और गार्डियनशिप एक्ट’ के सेक्शन 6 में बदलाव करना चाहिए। 1999 में लेखिका गीता हरिहरन की अर्जी पर आए कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि मां अपने बच्चे की मुख्य अभिभावक कुछ खास परिस्थितियों में ही बन सकती है। जैसे पिता की मृत्यु होने पर, पिता कहीं दूर रह रहे हों, बीमार हों। यानी गीता हरिहरन के मामले में कुछ खास परिस्थितियों को छोड़कर पिता को ही मुख्य दर्जा दिया गया था। यह फैसला बड़ा है मगर बच्चे के मामले में कानूनी तौर पर मां को पिता के बराबर हक देने के लिए अभी और बड़े कदम उठाने की जरूरत है।