जया शर्मा जेंडर और यौनिकता के मुद्दों पर लिखती हैं, शोध करती हैं और ट्रेनिंग देती हैं। उन्होंने बीस साल निरंतर संस्था में जेंडर और शिक्षा पर काम किया।
पंचायत घर के लंबे से कमरे की लंबी सी मेज़ के चारों तरफ बैठे लेगों को देखकर हम खुश हो रहे थे। वाह! क्या मीटिंग है। सब आए हैं – टीचर, हैडमास्टर, विधायक, ए.एन.एम., बी.डी.ओ., आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, पटवारी। बैठक की अध्यक्षता कर रही थी गांव की नई सरपंच।
बैठक में चल रही बातें किसी नाटक से कम नहीं थीं। मुद्दा था बाल विवाह का और चर्चा चल रही थी अनीता की। गांव की सोलह साल की लड़की जिसका बाल विवाह हो गया था। वो भी सबके मना करने के बावजूद। कितना समझाया था – पढ़ाई छूट जाएगी, कच्चा शरीर है। पुलिस ने भी समझाया, धमकाया। पर अनीता की शादी रातों रात दूसरे गांव में हो गई।
पूरी बैठक में सरपंच ने अब तक कुछ नहीं बोला था। आखिर में उनका बस एक सवाल था – अनीता क्या चाहती थी? शादी में अनीता की मज़र््ाी शामिल थी।
जब हम बाल विवाह के कारणों पर चर्चा करते हैं तो हम कुछ ही बातों के बारे में सोचते हैं – जैसे जल्दी बच्चे पैदा करना, गरीबी और शादी से पहले संबंध बनने का डर।
लेकिन अनीता की उम्र के कई लड़के और लड़कियां हैं जो खुद भी जल्दी शादी करना चाहते हैं। कारण कई हो सकते हैं। खासकर लड़कियों को बचपन से ही शादी का सपना दिखाया जाता है। पढ़ाई और नौकरी के सपने देखने का मौका ही कहां मिलता है? बात सिर्फ लड़कियों की नहीं है। शादी से पहले संबंध बनने पर बदनामी होने का डर, लड़कों की इच्छा पूरी करने के लिए शादी ही रास्ता नज़्ार आता है, हमारे समाज की सोच, वगैरहा वगैरहा…।
लेकिन बाल विवाह की जड़ तक जाने के लिए यह बेहद ज़्ारूरी है कि हम लड़के लड़कियों के मन की बातों को सुनंे। ऐसा करने के बाद ही हम समाधान का कोई बेहतर और तार्किक तरीका निकाल पाएंगे। आखिर उनके ही अधिकारों का सवाल है।