ऋतुपर्णा बोराह जेंडर और यौनिकता के मुद्दे पर करीब दस सालों से काम कर रही हैं। इन मुद्दों पर वह प्रशिक्षण देने और पैरवी करने का काम भी करती हैं।
यौन हिंसा सार्वजनिक स्थानों, घरों या फिर दफ्तरों में – सभी जगह देखी जा सकती है। काम करने की जगह पर यौन हिंसा अलग अलग तरीकों से होती है। मगर यह हिंसा केवल औरतों के साथ ही नहीं बल्कि ट्रांसजेंडर ल¨गों के साथ भी होती है। हाल ही में मेरे सामने कई ऐसे मामले सामने आए जिन्होंने दफ्तरों में होने वाली यौन हिंसा के मुद्दे पर मुझे सोचने के लिए मजबूर किया। कई औरतें दफ्तरों में होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं। लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के साथ साथ ट्रांसजेंडर ल¨गों के खिलाफ कार्यस्थल में होने वाली हिंसा के खिलाफ भी स®चना चाहिए।
मेरा एक दोस्त है जो जन्म से तो औरत है मगर वह इस जेंडर से खुद को नहीं जोड़ पाता। वह एक निजी कंपनी में काम करता था। दफ्तर में काम करने वाले उसके सहयोगी हमेशा उसे सलाह देते कि तुम बहुत खुबसूरत हो, लड़कियों जैसे कपड़े पहना करो। मेरा दोस्त अक्सर नाराज होता, लेकिन नौकरी जाने के डर से इसके खिलाफ न तो उसने आवाज उठाई और न ही इसे मुद्दा बनाया। घर से कोई आर्थिक मदद न मिलने के बावजूद मेरा यह दोस्त दफ्तरों में होने वाली इस तरह की यौन हिंसा के कारण कुछ दिन बिना नौकरी के भी रहा। मेरा यह दोस्त लड़कों की तरह ही रहता है। मगर उसके सिर में पीछे के कुछ बाल लंबे थे। उसके अधिकारी ने उससे कई बार कहा, इन बालों को काट लो। हद तो तब हो गई जब एक दिन अधिकारी ने कैंची लेकर खुद उसके बाल काट दिए। घर आकर वह बहुत रोया। मगर दफ्तर में कुछ नहीं कहा। उसे पता था कि अगर वह ऐसा करेगा तो उसके काम में कमी निकालकर उसे निकाल दिया जाएगा। ऐसा ही एक दूसरा वाकया मुझे याद है। मेरे ट्रांसजेंडर दोस्त के सहकर्मियों ने उसे एक लेडीज बैग उपहार में दे डाला। एक दिन उसके नाखूनों में नेल पालिश लगा दी।
अधिकारों के अलग – अलग आन्दोलनों के साथ क्या यह वक्त ट्रांसजेंडरों के लिए भी लड़ाई लड़ने का नहीं है?