अरू बोस निरन्तर संस्था में काम करती हैं। 2014 में संस्था ने सात राज्यों में बाल विवाह और कम उम्र में युवाओं की हो रही शादियों पर एक रिपोर्ट तैयार की। अरू भी इस टीम का हिस्सा थीं।
सलवार-कमीज़ पहने, लंबे वालों वाली मोनी को देखकर यकीन नहीं होता कि मोनी कभी बिल्कुल लड़कों की तरह रहती थी। पहनावा-ओढ़ावा, चाल ढाल सोच सब कुछ लड़कों जैसा था। उसने हमें अपनी जिंदगी के सफर के बारे में बताया।
उसने बताया कि वह अपनी मां के साथ रहती है। वह तीन बहनें हैं। मोनी के पिता ने उसकी मां को इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि उसने केवल बेटियां पैदा की थीं।
मोनी ने बताया कि पहले वह बिल्कुल लड़कों की तरह हाफ पैंट, फुल पैंट, बनियान और टी-शर्ट पहनती थी। वह पेड़ पर चढ़ जाती थी। उसके सारे दोस्त लड़के थे। उसे देर तक अपने दोस्तों के साथ रहने की छूट थी। मगर उसकी बहन की शादी के दिन उसे पहली बार एहसास हुआ कि वह लड़की है। उस समय उसकी उम्र चैदह साल की थी। उसके विरोध करने के बावजूद उसे सलवार कमीज, लहंगा पहनना पड़ा।
परिवार के लोगों ने उसके लड़कों जैसे पहनावे और चाल-ढाल पर ताने मारने शुरू कर दिए। उसे सलाह या कहें निर्देश दिए जा रहे थे कि उसे क्या पहनना और कैसे रहना चाहिए। पहला बदलाव उसके कपड़ों में करने की सलाह आई। लड़कियों जैसे कपड़े ही उसे पहनने चाहिए। किसी ने कहा बाल लंबे करने चाहिए। लड़कों से दोस्ती बंद करनी होगी। क्योंकि अगर वह ऐसी ही रही तो उसे पति नहीं मिलेगा।
लड़के लड़कियों को जेंडर के आधार पर अलग अलग खांचों में फिट करने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। लड़की को कहा जाता है कि उसे शर्मिला होना चाहिए, मां-बाप की बात माननी चाहिए, मर्यादित कपड़े पहनने चाहिए। लड़कों से कहा जाता है कि उन्हें पुरुषों की तरह मजबूत, फैसले लेने में सक्षम, घर की रोजी रोटी कमाने वाला होना चाहिए। लड़के लड़कियों को धमकाया जाता है, शारीरिक – मानसिक तौर पर अलग-अलग तरह की हिंसा की जाती है। शादी इसे बढ़ावा देती है और हमें इन खांचों में सीमित रखती है।
लड़के लड़कियों के हुनर को पहचानना, उनकी योग्यता को बढ़ाने की बजाए उम्र के सबसे महत्वपूर्ण दौर में उनकी सोच, उनके सपनों को जेंडर के खांचे में बांटना क्या ठीक है?