खबर लहरिया अतिथि कॉलमिस्ट चर्चाएं, नई नज़र से – जातिगत अहम है जातिगत हिंसा का कारण

चर्चाएं, नई नज़र से – जातिगत अहम है जातिगत हिंसा का कारण

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अनीता भारती

अनीता भारती चर्चित कहानीकार, आलोचक, व कवयित्री हैं । सामाजिक कार्यकर्ताए दलित स्त्री के प्रश्नों पर निरंतर लेखन हैं करती हैं । युद्धरत आम आदमी के विशेषांक स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण की अतिथि संपादक हैं । अपेक्षा पत्रिका की कुछ समय तक उपसंपादक थी । समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध (आलोचना पुस्तकद्ध), एक थी कोटेवाली (कहानी.संग्रह), यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (संयुक्त संपादन), स्त्रीकाल के दलित स्त्रीवाद विशेषांक की अतिथि संपादक हैं । श्रूखसाना का घरश् तथा श्एक कदम मेरा भीश् (कविता संग्रह), सावित्रीबाई फुले की कविताएँ (सम्पादन), कदम पत्रिका का अम्बेडकरवादी विचारक डॉक्टर तेज़ सिंह पर विशेषांक की अतिथि संपादक हैं ।

मैं बल्लभगढ़ के गांव में दस साल पहले एक केस के सिलसिले में गई थी। एक दलित परिवार पर हिंसा हुई थी। कारण था कि दलित व्यक्ति ने ऊंची समझी जाने वाली जाति के व्यक्ति के यहां काम करने से मना कर दिया था। इस पर उस बुज़ुर्ग व्यक्ति को मार मारकर अधमरा कर दिया गया। बेटा बचाने गया तो उसे भी पीटा। बहू आठ माह की गर्भवती थी। लड़ाई झगड़े का बीच बचाव करते हुए उसके पेट में लात मार दी। यह पूरी कहानी जातिगत हिंसा के हर पहलू को उजागर करती है। दरअसल जातिगत हिंसा का कारण ऊंची समझी जाने वाली जातियों के भीतर जातिगत अहम का होना है।
ज़्यादातर मामलों की तह तक जाएंगे तो सबसे बड़ा कारण दलितों द्वारा सत्ताधारी तबकों के तहत मज़दूरी करने से मना करना, उनके आदेशों को मानने से इंकार करना यानी इस जातिगत अहम को ठेस पहुंचाना निकलेगा। दलितों के खिलाफ हो रही हिंसा के मामले घटने की जगह बढ़े हैं। इसका कारण है-दलितों में चेतना आना। दलितों में अपने लिए सम्मान आना। समाज में सम्मानित जगह की तलाश करना। अब तक तो समाज में खुद को ऊंचा समझने वाले तबके को यही लगता था कि दलित उन्हें सम्मान देने और उनकी गुलामी के लिए बना है। बराबरी की मांग तो भयानक सपने जैसी है।
बौखलाए लोग अब इस बदलाव को मंजू़र करना नहीं चाहते। हिंसा से दबाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं जब बल्लभगढ़ में दलित परिवार के साथ हुई हिंसा के मामले में थाने में गई थी तो वहां कुछ औरतें बैठी हुई थीं। मैंने उनसे पूछताछ की तो पता चला कि वे सब औरतें दलित समुदाय की हैं। वे चक्कर लगा लगाकर परेशान थीं मगर उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी जा रही थी। मैंने वहां मौजूद पुलिस कर्मचारी से पूछा कि इनकी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखी जा रही? जवाब मिला कि यह सब मुआवज़ा पाने के तरीके हैं। कोई रेप-वेप नहीं हुआ है। क्या यही बयान किसी सत्ताधारी तबके की औरतों के लिए दिया जा सकता था? आप देखिए हरियाणा के भगाना कांड के दलित परिवारों को आज तक न्याय नहीं मिला। मिर्चपुर कांड में भी न्याय नहीं मिला। हाल ही में फरीदाबाद में जलाए गए एक दलित परिवार को भी न्याय अभी तक नहीं मिला। बल्कि अब तो इसे जातिगत हिंसा की जगह सामान्य हिंसा साबित करने की कोशिश हो रही है। कानून व्यवस्था को चुस्त होना पड़ेगा। चांैकाने वाली बात यह भी है कि इस थाने के थानेदार को गौरक्षा समिति ने एक सर्टिफिकेट भी दिया था। हम तब उसका मज़ाक भी बना रहे थे कि औरतों की रक्षा भले न करें मगर गायों की रक्षा थानों में ज़रूर होगी। पुरानी सामाजिक सोच बदलकर दलितों को बराबरी देने के लिए तैयार होना होगा। नहीं तो यह हिंसा चलती रहेगी। अभी तो यह हिंसा एक तरफा है मगर डर है कि कहीं दलित भी हिंसा का ही रास्ता न अपना लें। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि इनसे जुड़े महकमों में दलित समुदाय का भी प्रतिनिधित्व हो, जो कि अभी नहीं है।