जया शर्मा जेंडर और यौनिकता के मुद्दों पर लिखती हैं, शोध करती हैं और ट्रेनिंग देती हैं। उन्होंने बीस साल निरंतर संस्था में जेंडर और शिक्षा पर काम किया।
नवरात्र चल रहे हैं। जब मेरी मां ने मुझे प्याज़ लहसुन न खाने की सलाह दी तभी मुझे याद आया महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा गाय और बैल के गोश्त पर लगा बैन।
इसके मुताबिक अगर आपने यह गोश्त बेचा या आपके पास मिला तो आपको दस हज़ार रुपए का जुर्माना और पांच साल की सज़ा होगी। वह बातें भी याद आईं जो बचपन से सुनती आई हूं। गाय हमारी माता है। हमको दूध देती है। गौ हत्या वेदों के खिलाफ है। गाय का मास मुसलमान खाते हैं। गाय की रक्षा हमारा धर्म है।
पर ज़मीनी हकीकत इन मान्यताओं से बहुत अलग है। इन दिनों हमारे देश में गाय नहीं सबसे ज़्यादा भैंस का दूध पीया जाता है। लेकिन भैंस के मास पर रोक नहीं है। ग्रंथों में देखें तो पता चलता है कि देवताओं को गाय की बली भी चढ़ाई जाती थी। अश्वमेध यज्ञ में छह जानवरों और अंत में इक्कीस गायों की बली चढाई गई थी।
हमारे देश में मुसलमान ही नहीं, बौध और इसाई धर्म के लोग भी गाय का मांस खाते हैं। हिंदुओं में भी दलित जाति के लोग भी गाय का मांस खाते है। नए कानून के बाद गाय दूध देना बंद भी कर देगी तो उसे बेच नहीं सकते हैं। उसका खर्चा उठाना पड़ेगा। गाय रखने वाले ज़्यादातर किसान हिंदू हैं। चमड़े का काम और व्यापार करने वाले ज़्यादातर मुसलमान। गरीबों के लिए तो गाय का मांस सबसे सस्ता और पोषाहार है।
अब ज़रा बैन की राजनीति समझें। इलाहाबाद में जाने माने शोधकर्त्ता ज्यां द्रेज ने एक हज़ार लोगों का सर्वे किया। यह अफसर और नेतृत्व की भूमिका में बैठे लोग थे। सर्वे में निकला कि इन पदों पर हिंदू धर्म के ऊंची जाति के लोगों की संख्या सौ में से बीस प्रतिशत है। लेकिन यही बीस प्रतिशत तबका बहुत असरदार है। सरकारी अफसर ही नहीं पत्रिकारिता, मज़दूर और स्वयं सेवी संगठनों के नेतृत्व में भी यही हाल है।
तो क्या हिंदू धर्म और ऊंची जाति की सत्ता का प्रचार करने वाले लोग अब यह भी तय करेंगे कि हम क्या खाएं?