डाक्टर मीरा शिवा मेडिकल डाक्टर हैं। जन स्वास्थ्यए महिलाओं के स्वास्थ्यए खाद्य और पोषण सुरक्षा जैसे मुद्दों पर लंबे समय से काम कर रही हैं। इनका मानना है कि खाने के हक का सीधा संबंध सामाजिक और जेंडर न्याय से है। वह हेल्थ एंड इक्यूटी इन सोसायटीध् थर्ड वर्ड नेटवर्क की कोआर्डिनेटर हैं। डाइवर्स वुमेन फार डाइवर्सिटी संस्था की संस्थापक और इसकी स्टीयरिंग कमेटी की सदस्य हैं।
आजकल कीटनाशकों की कई कंपनियां गांव देहातों में जमकर प्रचार कर रही हैं। कीटनाशक जैसे जहरीले रासायनों को दवाईयों की तरह पेश किया जा रहा है। इन रासायनों को फल, फूल और फसलों की सुरक्षा करने वाली महाऔषधि के रूप में स्थापित किया जा रहा है। सच तो यह कि हमारी सरकार और इन्हें बनाने वाली कंपनियों की साठगांठ से इस झूठ को स्थापित करने का धंधा खुलेआम चल रहा है। पेस्टिसाइड बेचने वाली कंपनियां खेती में इनके प्रयोग को लाभदायक बनाने के लिये बकायदा प्रचार कर रही हैं, कम्पैन चला रही हैं।
मगर इन रासायनों की आकर्षक तस्वीर पेश करने वाले लोग इनके भीतर छिपे जहरीले सच को छिपाए रखे हैं। अब जरा एक उदाहरण से इस तरह के रासायनों के इस्तेमाल की प्रक्रिया को समझें-हमारा किसान अंगूर, गेहूं, टमाटर या दूसरी किसी फसल या फलों की बेल पर कीटनाशकों का छिड़काव करता है। कुछ कमजोर तरह के कीट तो मर जाते हैं। मगर कुछ कीट ऐसी भी होते हैं जो मजबूत होते हैं। इसका सामना करते हैं। यही नहीं इन कीटों की अगली पीढ़ी में यह रासायन एक बदलाव करते हैं। अगली पीढ़ी के कीट ऐसे होते हैं जो इन रासायनों का सामना करने में सक्षम होते हैं। अब दूसरी पीढ़ी के मजबूत कीटों को मारने के लिए किसान ज्यादा जहरीले और ज्यादा मात्रा में इनका प्रयोग करता है। इस तरह से यह मात्रा बढ़ती जाती है। इन रासायनों का कुछ हिस्सा फलों, फसलों और सब्जियों के भीतर जाकर इनके बीज के जरिए खेत की मिट्टी में जाकर मिट्टी में जहर घोल देता है। किसान इन्हें खेतों में छिड़कते हैं। बगैर हाथों में न दस्ताने पहने और बिना मुंह में मास्क लगाए। इस वजह से किसान तो सबसे पहले इस जहर को निगलते हैं। इसके बाद हम सब।
अफसोस वाली बात यह है कि भारत में जिन रासायनों का इस्तेमाल इतने गर्व के साथ होता है, उनमें से ज्यादातर दुनियाभर में प्रतिबंधित हैं। डी.डी.टी. बी.एच.सी. एल्ड्रान, क्लोसेडेन, एड्रीन, मिथाइल पैराथियोन, लिंडेन जैसे कई और कीटनाशकों के इस्तेमाल पर बहुत पहले ही रोक लगाई जा चुकी है। डी.डी.टी का इस्तेमाल तो बहुत पहले ही पूरी दुनिया में बंद किया जा चुका है। मगर भारत में मलेरिया से बचाव के नाम पर आज भी यह इस्तेमाल हो रहा है। गैर सरकारी संगठन नवदान्या ने 2002 में इंपैक्ट आफ पेस्टीसाइड आन विमेन इन एग्रीकल्चर यानी कृषि करने वाली औरतों पर कीटनाशकों का असर नाम से एक अध्ययन किया था। इसमें सामने आए नतीजे साफ कह रहे थे कि इस तरह के रासायन औरतों मे मिचली जैसा एहसास पैदा करने के साथ सांस संबंधी कई तरह की बीमारियां पैदा करते हैं। इसके अलावा कई और अध्ययों के जरिए ये साबित किया जा चुका है कि कई तरह की त्वचा संबंधी बीमारियां, सांस संबंधी बीमारियां, नाक, कान, आंखों की बीमरियां और संक्रमण, हार्मोन के रिसाव की प्रक्रिया में बदलाव, यहां तक कि औरतों में खुद ब खुद गर्भपात की भी गुजांइश इस तरह के रासायन बढ़ रहे हैं। मगर सरकार इस सच से आंखे फेरे बैठी है।