मानसी गांधी स्वंतंत्र पत्रकारिता करती ह, यह लेख द वायर के लिए लिखा गया था। यह ऐसा कठिन कार्य है जिसको करने में मजा आता है! और शायद यही कारण है कि हम किसी गृहिणी के काम को बोझ नहीं कहते हैं। यही कारण है कि उनका योगदान अर्थव्यवस्था को बल देने में नहीं गिना जाता। जरुरी है कि घर बनाने वाली गृहणियों को उनके काम के लिए भुगतान किया जाए। लेकिन कैसे हम उनके काम का मुल्यांकन कर सकते हैं?
इन सवालों का जवाब देने के लिए 2012 में महिला एवं बाल विकास मंत्री, कृष्णा तीरथ ने एक सुझाव रखा कि गृहणियों के काम की मात्रा निर्धारित की जाए। जिसका भुगतान उनके जीवन-साथी द्वारा किया जाना होगा। हालांकि यह माना गया कि यह एक अच्छा लेकिन त्रुटिपूर्ण तर्क है। माना जाता है कि परिवार चलाने के लिए मेहनत करने की जिम्मेदारी पति पर होती है या उस पर जो घर का मालिक होता है। इस बारे में राज्य सरकार का रुख लापरवाही भरा रहा।
एक तथ्य यह भी है कि पत्नी शादी के बाद बराबरी के साथ परिवार चलाने में भागीदार होती है। लेकिन घर के लिए वह कोई निर्णय नहीं ले सकती, क्योंकि वह कमाती नहीं है! जबकि परिवार चलाने, घर बनाने का सबसे महत्वपूर्ण काम वही करती है। चूंकि उसका किया हुआ कार्य दिखाई नहीं देता इसलिए वह सभी निर्थक कार्य होते हैं।
26 देशों द्वारा गठित एक संस्था के अध्ययन के अनुसार, भारतीय महिलाएं घर के कामों में, पुरुषों की तुलना में, बिना किसी वेतन के 5 घंटे अधिक काम करती हैं। जबकि भारतीय पुरुष अधिकतर समय सोने में, खाना खाने में, टीवी देखने में और सबसे ज्यादा आराम करने में गुजार देते हैं।
जो महिलाएं घर से बाहर निकल कर काम कर रही हैं उनकी संख्या बढ़ी हैं लेकिन जो महिलाएं घर से नहीं निकल रही लेकिन कई घंटे काम कर रही हैं उन्हें भी अपने लिए ‘किए गये कार्य का मेहनताना’ मांगना चाहिए।
कहने की जरूरत नहीं है कि देश की आधी आबादी की जरूरतों और उनके मुद्दों को महत्व दिया जाना चाहिए। एक गृहिणी का अर्थव्यवस्था बनाने में योगदान होता है इस बात को मान लेना जरुरी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर यदि घर चलाने वाली महिलाओं को उनका हक यानी मेहनताना भी मिल सके तो यह सच्चा श्रम दिवस होगा।