इस हफ्ते महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को दस साल पूरे हो गए। योजना का नाम जितना बड़ा है उतनी ही बड़ी ये योजना भी है। ये दुनिया की सबसे बड़ी समाज कल्याण योजना है। इसलिए जहां एक तरफ राजनीतिक दल मनरेगा के महत्त्व पर लड़ रहे हैं आइए देखें कि पिछले एक दशक से इस योजना का ग्रामीण जीवन पर आई विपत्ति के लिए क्या मतलब रहा है।
मनरेगा का मुख्य उद्देश्य है कि प्राथमिक उत्पादकों को सुरक्षा जाल प्रदान करे, 150 दिनों का कृषि से हट कर रोज़गार प्रदान करे। योजना की शुरुआत से सरकार ने इसे लागू करने पर तीन लाख करोड़ से ज़्यादा खर्च किया है। पिछले साल निकाली गई एक रिपोर्ट के अनुसार 140 लाख लोग गरीबी से बच कर निकल पाए हैं। इन दस सालों में ज़्यादा से ज़्यादा औरतों ने काम करना शुरू किया है और पहली बार पैसे कमाए हैं। ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों ने स्कूलों में दाखिला लिया है इस तरह खेतों में सस्ती मज़दूरी करने से ज़्यादा समय उन्होंने स्कूलों में व्यतीत किया है। सुंदरवनों में मैनग्रोव के पेड़ खिल रहे हैं, झारखण्ड में कुंए फल-फूल रहे हैं, और कर्नाटक में बोरवेल एक बार फिर काम करने लगे हैं।
हालांकि इस योजना की कमियों पर काफी आलोचना हुई है। विभिन्न जांचों से पता चला है कि जॉब कार्ड, नौकरियां देने में, मज़दूरी और बेरोज़गारी भत्ता देने में कई कमियां हैं। काम की गुणवत्ता पर लगातार सवाल रहते हैं और परिवारों को गारंटी दिए रोज़गार के 150 दिन नहीं मिल रहे हैं। हमें पता है कि योजना काम करती है मगर हमें सरकार को जवाबदेय बनाना होगा।
एक बड़ी आलोचना मनरेगा के ऊपर मंडरा रही है। क्या ये ग्रामीण जीवन पर आई विपत्ति का जवाब है? उसपर तर्क करने से पहले हमें इससे भी बड़े सवाल पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिएः ग्रामीण विपत्ति का कारण क्या है? हमारे और सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही पता लगाना है कि कृषि लाभकारी क्यों नहीं है? कृषि से हटकर रोज़गार के और कौन से रास्ते हैं? कृषि से हटकर क्षेत्रों में बेरोज़गारी ज़्यादा क्यों है?
मनरेगा कांग्रेस की असफलता या हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान की जीतीजागती निशानी भले ही न हो मगर ये बढ़ती ग्रामीण विपत्ति की निशानी अवश्य है।