मराठवाड़ा भर के किसान जो पहले से ही कृषि संकट से जूझ रहे हैं, 45 डिग्री तापमान में एक बाज़ार से दूसरे बाज़ार तक कई किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं और अपने पशुओं को बेचने का पूरा प्रयास कर रहे हैं ताकि कुछ पैसा मिल जाये, लेकिन गोमांस पर प्रतिबंध की वजह से यह लगभग असंभव सा हो गया है।
कोथुले एक महीने से विभिन्न बाजारों के चक्कर काट रहे हैं। वह अपने गांव, देवगांव के आस–पास लगने वाले सभी साप्ताहिक बाजारों में जा चुके हैं, जो कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में औरंगाबाद शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर है। वह कहते हैं, ”कोई भी बैलों की इस जोड़ी का 10,000 रुपये से अधिक नहीं देना चाहता। मुझे कम से कम 15,000 रुपये मिलने चाहिए।”
वहीं, कलीम कुरैशी औरंगाबाद के सिल्लखाना क्षेत्र में अपनी गोमांस की दुकान पर बेकार बैठे हुए हैं, यह सोच रहे हैं कि अपने खत्म होते व्यवसाय को कैसे पुनर्जीवित किया जाए। ”मैं प्रतिदिन 20,000 रुपये का व्यवसाय किया करता था जो पिछले दो वर्षों में खत्म होने को है।”
राज्य के अंदर गोमांस पर प्रतिबंध लगे दो साल हो चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी के देवेंद्र फडणवीस 2014 में जिस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने, उससे पहले ही कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की पिछली सरकार में कृषि संकट गहरा गया था। बढ़ती लागत, फसलों की कम ज्यादा होती कीमतें, पानी के कुप्रबंधन और अन्य तत्वों ने बड़े पैमाने पर परेशानी खड़ी कर दी थी, जिसकी वजह से राज्य में हजारों किसानों ने आत्महत्या कर ली। गौ–हत्या पर तो प्रतिबंध था ही, फडणवीस ने मार्च 2015 में बैलों और बछड़ों पर पाबंदी लगाकर इस संकट को और गहरा कर दिया।
गाय–भैंस ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र हैं, उन पर प्रतिबंध लगाने से पशु–आधारित व्यापार पर सीधा असर हुआ। इससे वे किसान भी प्रभावित हुए, जो दशकों से पशुओं को बीमा के रूप में इस्तेमाल करते थे, वे मवेशी इसलिए पालते थे ताकि शादी–ब्याह, औषधि, या फिर आगामी फसल लगाने के मौसम में जब भी अचानक पैसे की जरूरत पड़े, वह उन्हें बेचकर पैसे प्राप्त कर लेंगे।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े कई अन्य लोगों को भी कानून में किए गए इस संशोधन, यानी गोमांस पर प्रतिबंध से नुकसान पहुंचा है। चमड़े का कार्य करने वाले दलित, ट्रांस्पोरटर्स, मांस व्यापारी, हड्डियों से दवा बनाने वाले, इन सभी पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा है।
पारी, 28 जुलाई 2017