पिछले तीन सालों से पूरे देश में बीमार नवजात शिशु देखभाल इकाइयों (एसएनसीयू) के आंकड़ों से पता चलता है कि परिवार में किसी बीमार नवजात का इलाज होना इस पर निर्भर करता है कि वो लड़का है या लड़की यानी गर्भ ही एकमात्र जगह नहीं है जहां लड़की को खतरा होता है बल्कि जन्म के बाद भी उसका जीवन मुश्किलों से भरा होता है ।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, जहां एसएनसीयू डेटा उपलब्ध है वहां इस मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। आंकड़ों के अनुसार, लड़कों और लड़कियों की 60-40 फीसदी पक्षपात दिखता है । यहां 9199 लड़कियों अपेक्षित व्यवहार झेलती हैं जबकि लड़कों की यह संख्या 1000 है।
शिशु मृत्यु दर को नियंत्रित करने के लिए भारत की योजना का एक अभिन्न अंग है आईसीयू जहाँ पैदा होने के दिन से 28 दिनों तक नवजात को पूरी तरह से लैस बाल चिकित्सा यानी आईसीयू पर रखा जाता हैं। वर्तमान में, देश में 700 एसएनसीयू हैं, जो प्रत्येक जिले में एक से अधिक हैं. लेकिन यहाँ भी लिंग भेद दिखाई देता है। 2015-16 में, इन यूनिटों में भर्ती हुए 58.6 प्रतिशत बच्चे लड़के थे और 2016-17 और 2017-18 में लड़कों का प्रतिशत बढ़ कर 58.8 था। यह स्वास्थ्य समस्या नहीं है यह एक सामाजिक और एक समुदाय मुद्दा है।
एसएनसीयू संख्याएं इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण के निष्कर्षों के अनुरूप भी हैं, भारत में 21 मिलियन लड़कियां अवांछित हैं क्योंकि उनके माता–पिता एक लड़के चाहते थे लेकिन उनकी बजाय उन्हें एक लड़की मिली।
यह शोध अमेरिका में नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के विकास अर्थशास्त्री सीमा जयचंद्रन द्वारा 2017 में प्रकाशित पेपरों पर आधारित है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और आयुष्मान भारत के अतिरिक्त सचिव और मिशन निदेशक मनोज झालानी कहते हैं, “ उन्हें उपेक्षित नहीं होना चाहिए, वास्तव में नवजात बच्ची (लड़की) पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ”
उन्होंने आगे कहा, “आदर्श अनुपात 50-50 होना चाहिए, लेकिन किसी भी परिस्थिति में इसे 53-47 से कम नहीं होना चाहिए।
हाल ही में यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में 640,000 नवजात शिशुओं की मौतें हुईं, दुनिया में भारत में सबसे ज्यादा संख्या में बच्चों की मौत होती है। भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर वर्तमान में 39 प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर है। इसमें भी लड़कियों की संख्या ज्यादा है।