दुनियाभर में पचपन प्रतिशत लोग गरीब हैं। विश्व बैंक की हाल ही में जारी हुई स्टेट आफ सोशल सेफ्टी नेट नाम की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल गरीब आबादी के आधे से ज्यादा लोगों को समाज कल्याण के लिए चलाई जा रही सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं मिलता। अगर दुनिया की आधे से ज्यादा आबादी गरीब है तो फिर दुनियाभर में विकास के दावों में कितनी सच्चाई है? विकास का मतलब समाज के हर व्यक्ति तक इसका फायदा पहुंचना। मगर इस रिपोर्ट को देखकर तो यह लगता है कि विकास खास तबके तक ही पहुंच रहा है।
हाल ही में भारत में सामजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना हुई। इसके आंकड़े बनाते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों के पिचहत्तर प्रतिशत घरों के मुखिया पांच हजार रुपए प्रति माह से कम पाते हैं। इक्यावन प्रतिशत लोग हाथों से मजदूरी करने वाले हैं। अट्ठाइस प्रतिशत लोगों के पास आज भी मोबाइल या जानकारी पाने का कोई भी साधन नहीं है। 2007 में आई अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हमारे देश में सतहत्तर प्रतिशत लोग गरीबी के दायरे में आते हैं। अगर मौजूदा जनगणना रिपोर्ट को देखें तो उसमें एक घर या परिवार में पांच लोग औसतन माने गए हैं तो एक व्यक्ति के हिस्से में एक हजार रुपया प्रति माह आया। यानी एक दिन में तैंतिस रुपया। क्या दिन में तैतिस रुपया दिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है?
गरीबी की कई परिभाषाएं समय समय पर आती रहती हैं मगर बुनियादी सेहत के लिए खाना, पहनने को कपड़े, रहने को एक औसत घर की जरुरत पूरा न कर पाने वाले को हम किस दायरे में रखेंगे?