1 अप्रैल 2013 को शिक्षा के अधिकार कानून को देश में तीन साल पूरे हुए। सभी के बुनियादी और नागरिक हकों को पूरा करना सरकार की मुख्य जि़म्मेदारी है। शिक्षा के अधिकार का कानून भी ऐसा ही अधिकार है जिसे सरकार ने लागू करने में ढिलाई दिखाई है। सभी राज्यों को इन तीन सालों में इस कानून की मांगों को पूरा करना था पर ऐसा हो नहीं पाया है।
कानून के लागू होने से स्कूलों में नामांकन में बढ़ोतरी हुई है। देश में लगभग दो लाख और स्कूल खुले हैं। लेकिन इस सबसे शिक्षा की गुणवत्ता में जो सुधार लाने पर कानून में बात थी, उस पर काई असर नहीं हुआ। क्योंकि देश में जहां बावन लाख टीचरों की ज़रूरत है वहां सिर्फ ग्यारह लाख टीचर नियुक्त हैं। सभी नियुक्त टीचरों को प्रशिक्षित होना था लेकिन अभी सिर्फ चार लाख टीचरों को ट्रेनिंग मिली है। जनता में शिक्षा को लेकर जागरुकता भी बढ़ी है। लोग अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं पर सरकारी स्कूलों में टीचरों का ना होना और बुरी व्यवस्था देखते हुए प्राइवेट स्कूल पनप रहे हैं।
केंद्र मंत्रालय ने अब सभी राज्यों को दो साल और दिए हैं जिनमें इन राज्यों को इस कानून को सफल बनाना है। वहीं उनका ये भी कहना है कि जो स्कूल कानून के अनुसार सुविधायें ना दे पाएं उन्हें बंद कर देना चाहिए। पर ये कैसा समाधान हुआ? वर्तमान स्थिति के रहते तो ऐसे हज़ारों स्कूल बंद करने पड़ेंगे। एक देश जहां लगभग अस्सी लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते और जो स्कूल खुले हैं वहां भी स्कूल की क्षमता से कहीं ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं, वहां स्कूलों को बंद करके क्या लाभ होगा?
शिक्षा के अधिकार कानून को लागू कर दिया लेकिन इन तीन सालों में क्या सरकार ने इस कानून को ज़मीनी स्तर पर चलाने वालों की जवाबदेही सुनिश्चित की? राज्य स्तर पर निगरानी के लिए बाल संरक्षण आयोग स्थापित होना था पर बहुत से राज्यों में अभी भी ये आयोग नहीं हैं। ज़रूरत है कि सरकार संसाधनों को उपलब्ध कराए और गंभीरता से इस कानून को पूर्ण रूप से लागू करने के बारे में सोचे। लाखों बच्चों की शिक्षा के सवाल पर सरकार ढीली नहीं पड़ सकती। आने वाले दो सालों की समय सीमा सरकार के लिए एक इम्तहान होगी।
क्यों नहीं दिखा शिक्षा में बदलाव?
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