नई दिल्ली। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बनी एक अंतरराष्ट्रीय संस्था – संयुक्त राज्य (यू.एन.) के बनाए गए दस्तावेज के अनुसार ‘सज़ा के नाम पर किसी भी व्यक्ति के साथ क्रूर, अपमानजनक या अमानवीय व्यवहार नहीं किया जा सकता है।’ फिर मौत की सज़ा तो सबसे ज़्यादा क्रूर और अमानवीय व्यवहार है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह संस्था मौत की सज़ा का विरोध करती है। संस्था का यह भी तर्क है कि अपराधी को सज़ा देने से अपराध कम नहीं होता।
यू.एन. ने भारत में पिछले तीन महीनों के भीतर दो अपराधियों को सज़ा देने पर विरोध जताया है। दुनिया के करीब दो सौ देशों में से 193 देश यू.एन. के सदस्य हैं। लगभग सभी देशों ने भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इस तरह की सज़ा दिए जाने की आलोचना की है। दुनिया के 96 देशों में मौत की सज़ा पूरी तरह से खत्म की जा चुकी है। चैंतीस देशों में इस मुद्दे को लेकर गंभीर चर्चा जारी है। ऐेसे में भारत में फांसी की सज़ा ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बवाल खड़ा कर दिया है। कई सामाजिक संस्थाओं, वकीलों और न्यायाधीशों ने सरकार के इस फैसले पर सवाल उठाया है।
हाल ही में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद जस्टिस वर्मा की कमेटी की रिपोर्ट में भी कहा गया कि मौत की सज़ा अपराधों को कम करने में मददगार साबित नहीं हुई है। फिर भी सरकार ने बलात्कार के बेहद क्रूर मामलों में फांसी की सज़ा का नियम रखा है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश में तीन महीनों के भीतर दो अपराधियों को फांसी क्यों दी गई? अजमल कसाब को मुंबई हमलों के लिए और अफजल गुरु को संसद पर हमला करने के मामले में फांसी हुई। कई राजनीतिक विशेषज्ञ इन दोनों ही सज़ाओं को 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव से जोड़ रहे हैं। अपने दोनों कार्यकालों (साल 2004 से 2009 और 2009 से 2014) में भ्रष्टाचार, अपराधों और महंगाई पर लगाम लगाने में असफल रही सरकार ऐसा करके यह दिखाना चाहती है कि वह अपराधों को लेकर गंभीर है और न्याय व्यवस्था को सुधारना चाहती है। इससे आम लोगों के वोट खींचने की कोशिश
कर रही है ये सरकार।