इस हफ्ते अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में समलैंगिक शादियों को कानूनन रूप से जायज घोषित किया। इस फैसले और लोगों की इसपर प्रतिक्रिया से शादी जैसी संस्था पर सवाल उठता है – चाहे समलैंगिक हो या फिर आदमी -औरत के बीच की शादी – क्या शादी इतनी जरूरी और सर्वोत्तम व्यवस्था है जिसपर हमारा समाज टिका हुआ है? और क्यों?
कुछ लोगों को लगता है कि शादी की वजह से वंश, खानदान और परिवार आगे बढ़ते हैं, लोग ऐसी व्यवस्था में सुरक्षित महसूस करते हैं, एक दूसरे का खयाल रखते हैं, प्यार जता सकते हैं। नारीवादी सोच के मुताबिक जो लोग शादी करते हैं उन्हें कई सामाजिक फायदे मिलते हैं – संपत्ति, स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवाएं, सामाजिक मौकों में बेहिचक शामिल हो पाने के मौके इत्यादि। जो शादी नहीं करना चाहते, उनको अजीब माना जाता है, समाज का गुस्सा और चिंता उनपर स्पष्ट होता है। शादी की व्यवस्था गैर बराबरी के ढांचे पर भी टिकी है। इसमें यह अनिवार्य है कि घर और बच्चों की देखभाल करना मुख्य रूप से औरतों का काम है, पुरुष इसमें हाथ बंटा सकते हैं लेकिन उनका काम मुख्य रूप से नौकरी करने का और पैसे कमाने का है। ये ही नहीं, कौन किसके साथ, कब और कैसे शादी करेगा -ये निर्णय भी सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। जो समाज के नियम तोड़ता है, उन्हें कई बार इसकी सजा भुगतनी पड़ती है – सामाजिक रूप से घृणा और हिंसा भी सहनी पड़ती है।
शादी एक ऐसी व्यवस्था भी है जो दोस्ती और अन्य रिश्तों को दरकिनार कर देती है। इस वजह से माना जाता है कि जो शादी-शुदा नहीं हैं, उन्हें प्यार करने वाला, उनसे सम्बन्ध बनाने वाला और जरूरत पड़ने पर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा।
जब एक समुदाय को शादी का कानूनी हक मिलने पर लोग जश्न मन रहें हैं, तब समय आ गया है कि हम शादी की व्यवस्था को पलटकर देखें। इसे अनिवार्य न समझें और इसमें निहित गैर बराबरियों पर सवाल उठाएं।