पूरे साल हंगामें भरा रहा रही। कई घटनाएं घटीं। कुछ ने उम्मीद बंधाई तो कुछ ने उम्मीद तोड़ी। साल 2012, 16 दिसंबर में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से पूरा देश हिल गया। ये घटना एक उदाहरण इसलिए बन गई क्योंकि लोगों ने इसके साथ महिलाओं के खिलाफ हो रही हर तरह की हिंसा के मुद्दे को उठाया। नतीजा उत्साहजनक रहा। जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के सुझावों को शमिल करते हुए कानून बना। करीब एक साल बाद ज़मीनी स्तर पर इस कानून का असर कुछ कुछ दिखने लगा है। थानों में औरतों के साथ व्यवहार बदला, पहले जो मामले दब जाते थे अब वो सामने आने लगे हैं। अन्ना हजारे का आंदोलन भी इसी साल रंग लाया, नौकरशाहों और नेताओं की जवाबदेही तय करने वाला लोकपाल विधेयक (कानून) भी पास हो गया। देश की राजधानी दिल्ली में जनता ने अपनी ताकत दिखाई। बढ़ते भ्रष्टाचार और महंगाई से तंग आकर जनता ने पिछले तीन सालों से सत्ता में बैठी कांग्रेस सरकार को नहीं चुना। मजे़दार बात ये रही कि राजनीति में पहली बार आने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में बनीं। पर इस बीच मुज़फ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगे और फिर उन पर हो रही राजनीति, गुजरात दंगों के मामले में नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट मिलने से लोगों में असंतोष भी रहा। समलैंगिकों को अपराधी बताने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जनता का गुस्सा फूटा। उम्मीद है कि राजनीति में आए सकारात्मक बदलावों का असर नए साल से दिखना शुरू हो जाएगा। भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकेगी, सांप्रदायिक हिंसा और नहीं होगी। औरतें सुरक्षित महसूस कर सकेंगी।
कुछ उम्मीदें बंधी तो कुछ टूटी
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