पंचायती राज को 24 अप्रैल 2013 को बीस साल पूरे हुए। राज्य में अधिकतर प्रधानों और अधिकारियों को खुद नहीं पता था कि पंचायती राज को भारत के संविधान में कानूनन पहचान और एक ठोंस रूप इस ही दिन 1993 में मिला था।
इसके पीछे सोच ये थी कि गांव स्तर पर गांव के लोग ही काम संभालें और इस प्रकार स्थानीय विकास के काम से उनका जुड़ाव बना रहे। पंचायती राज ने देश को एक नए स्थानीय शासन का ढांचा दिया जो तीन स्तरों पर काम करता है – ग्राम, जनपद और जिला। इस ढांचे में पिछड़े वर्ग के लोग और महिलाओं के आगे आकर शासन की बागडोर संभालने के लिए खास मौका था।
साल 2008 में सरकार ने पंचायती राज के हर स्तर पर महिलाओं के लिये पचास प्रतिशत सीटों को आरक्षित करने की मांग को स्वीकृत किया लेकिन अब तक देश के अट्ठाइस में से केवल बारह राज्यों ने इसे लागू किया है। आज भी बहुत सी महिला प्रधान हैं जिनका काम पति या बेटे संभालते हैं। कहीं महिलाएं बाहर निकलने की कोशिश करती हैं तो उनके विचारों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। पिछड़े वर्गों और आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधान बनाए गए पर पंचायती राज का आदिवासी इलाकों में कोई असर नहीं देखा गया है। साल 2000 में बने राज्य झारखंड जहां अधिकतर जनता आदिवासी है वहां पहली बार पंचायती चुनाव सिर्फ 2010 में हुए।
इन सब बातों से साफ ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार ने पंचायती राज में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। ना ही आगे आने वाली महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है और ना ही आदिवासियों को आत्मनिर्भर बनाने की कोई कोशिश है। एक कानून जो कागज़ी तौर पर सम्पूर्ण रूप से सक्षम है, उसे ज़मीनी स्तर पर कार्यरत करने की सरकार द्वारा कोई कोशिश इतने सालों में भी नहीं दिखाई दी है।
किसकी पंचायत, किसका राज
पिछला लेख