मांगा हिस्सा मिली मौत
मायका हो या ससुराल पुरुषों के हिस्से ही प्रापर्टी आती है। कानून कितने ही बना लो मगर सामाजिक मान्यता का क्या करेंगे? लखनऊ के बंथरा थाने में पड़ने वाले रतौली खटोला गांव में ऐसा ही हुआ। दो सगी बहनों की हत्या उनके भाई संतोष ने 2 दिसंबर को करवा दी। वजह थी-संपत्ति। 20 साल की रेखा और 18 साल की सविता का दोष केवल इतना ही था कि वे दोनों पैतृक संपत्ति में हिस्सा चाहती थीं। बंथरा थाने के एस.ओ. संजय खरवाल ने बताया कि ‘भाई संतोष ने पुलिस के सामने जुर्म कुबूल कर लिया है। लड़कियां अपने पिता की एक बीघा ज़मीन में हिस्सा मांग रही थीं। इस ज़मीन की कीमत सत्तर अस्सी लाख होगी।’ एस.ओ. ने बताया कि ‘मेरे सामने बेटी द्वारा पैतृक ज़मीन में हिस्सा लेने का दावा पहली बार आया है।’ यह भी कहा कि ‘ज़्यादातर मामलों में लड़कियां हिस्से का दावा नहीं करती हैं।’ भाई और चारों दोषियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
बराबरी पाने में लगे पचास साल
2005 में उत्तराधिकार अधिनियम को संशोधित किया गया। संशोधन अधिनियम 2005 के तहत बेटियां भाई या किसी अन्य पुरुष उत्तराधिकारी के बराबर हक रखती हैं।
औरतों के हकों के आड़े आती पितृसत्तात्मक सोच
कानून क्यों बनते हैं? इसीलिए न कि हमें हमारा अधिकार मिल सके। मगर कानून बनकर भी अगर हक नहीं मिल रहे हैं तो कानून बनाना किस काम का? कानून बनाने से लेकर उन्हें लागू कराने की जि़म्मेदारी कानून बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा होना चाहिए। हिंदू उत्तराधिकार कानून में दस साल पहले बदलाव हो चुका है। मगर पितृसत्तात्मक सोच उसे पचा ही नहीं पा रही है। अच्छी बात यह है कि अब अपने हक के लिए लड़कियां आगे आ रही हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों में तो पुलिस खुद भी नैतिक पाठ पढ़ाती दिखती है। इस मामले में भी एस.ओ. का यह कहना चिंताजनक है कि लड़कियां संपत्ति में हिस्सा ज़्यादातर नहीं मांगतीं। इससे पता चलता है बदलाव की हवा पुलिस को लगती ही नहीं। लड़कियां हक के लिए तेज़ी से आगे आ रही हैं। इस कानून में सबसे बड़ी दिक्कत है केंद्र और राज्य में संपत्ति के अधिकारों का एक जैसा न होना। ज़मीन राज्य का मसला है। इसलिए इस कानून के बनने के बाद भी कई राज्यों में इस कानून को लागू ही नहीं किया जा सका है। –अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की वाइस प्रेसीडेंट, जगमति सांगवान
कानून बनाना ही काफी नहीं देशव्यापी आंदोलन की ज़रूरत
देखिए इस कानून को आए एक दशक हो चुका है। ऐसे में इस घटना में एस.ओ. का कहना कि ज़्यादातर मामलों में लड़कियां मायके की प्राॅपर्टी में हिस्सा नहीं मांगती हैं, अफसोस जनक है। क्योंकि लड़कियां अब प्राॅपर्टी में हिस्सा मांग रही हैं। यह मांग लगातार बढ़ रही है। हां, कई बार परिवार और समाज के स्तर पर इस तरह के अधिकारों की मांग को दबा दिया जाता है। लेकिन यहीं से प्रशासन, सरकार और कानूनी तंत्र का काम शुरू होता है। कानून बनाने के बाद उन्हें लागू कराने की जि़म्मेदारी भी सरकार की है। कानून की रक्षा करना कानूनी तंत्र और प्रशासन की जि़म्मेदारी है। कानून बनाना ही काफी नहीं है, जागरुकता अभियान भी चलाने चाहिए। आंदोलन होने चाहिए, व्यवस्था की तरफ से। संशोधित उत्तराधिकार कानून 2005 औरतों के खिलाफ हिंसा पर लगाम लगाने का एक नायाब कानूनी तरीका है। औरतों की आज़ादी के लिए ज़रूरी है कि उन्हें आर्थिक मज़बूती मिले। यह कानून उन्हें आर्थिक बराबरी देता है। –सुप्रीम कोर्ट की मशहूर वकील करुणा नंदी से बातचीत