पत्रकारिता की दुनिया को एक बड़ा झटका लगा जब जानी मानी पत्रिका ‘तहलका’ के मुख्य संपादक पर यौन हिंसा का आरोप लगाया गया। बीते साल में महिलाओं की सुरक्षा और आज़ादी के मसले पर चर्चाओं और एक नए सख्त कानून को रास्ता भी मिला। पर दरअसल लोगों की सोच और महिलाओं की स्थिति में कितना बदलाव आया है?
बड़े शहर में काम करने वाली महिला पत्रकार ने जब अपने ही संस्थान के खिलाफ आवाज़ उठाई तो इसे अंद्रोनी मामला बताकर आरोपित ने छह महीने की छुट्टी लेकर खुद ही सज़ा भी तय करली। दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट में काम करने वाली एक महिला वकील ने इस ही महीने बताया था कि एक पूर्व जज ने उसके साथ यौन शोषण किया था। इस मामले की तह तक जाने के लिए कोर्ट ने तुरंत एक कमेटी का गठन किया। दोनों घटनाओं से एक बात साफ है – यौन हिंसा को लेकर आज भी सत्ताधारी पुरुषों में साहस की कोई कमी नहीं है।
अप्रैल 2013 में आपराधिक कानून में यौन हिंसा के अपराध की परिभाषा, और दोषी के लिए सज़ा – दोनों को और सख्त बनाया गया। फिर भी एक पढ़े-लिखे, मशहूर पत्रकार और संपादक को अपने कर्मचारी के साथ ऐसा व्यवहार करने की आज़ादी कैसे महसूस हो सकती है? जवाब है, मीडिया संस्थानों का ‘काम की जगह यौन शोषण’ जैसे गंभीर मुद्दे को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करना। आज भी कार्यस्थल पर होने वाले शोषण और हिंसा को एक अपराध के रूप में नहीं देखा जाता है। ‘कार्यस्थल पर यौन शोषण’ के कानून के तहत ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए कोई कमेटी नहीं है जबकि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार हर संस्थान में ऐसी कमेटी होना ज़रूरी है।
इन सब के बावजूद जिस महिला पत्रकार ने शिकायत दर्ज की, वह पीछे नहीं हटी। सबके लिए ना ही यह करना संभव है और ना ही आसान। उसकी हिम्मत और बुलंद इरादे को हमारा सलाम।
एक बुलंद आवाज़ ने खड़े किए कई सवाल
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