केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इच्छामृत्यु का हक दिये जाने का विरोध करते हुए कहा कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। सरकार ने कहा कि इच्छामृत्यु का हक नहीं दिया जाना चाहिए।
जीवित रहते इस बात की वसीयत कर जाना कि लाइलाज बीमारी से ग्रसित और मृतप्राय स्थिति में पहुंच गए शरीर को जीवन रक्षक उपकरणों पर न रखा जाए और मरने दिया जाए।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 10 अक्टूबर को इच्छामृत्यु पर सुनवाई शुरू की। गैर सरकारी संस्था कामनकाज ने इच्छामृत्यु का अधिकार दिये जाने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि सम्मान से जीवन जीने के अधिकार में सम्मान से मरने का अधिकार शामिल है।
केन्द्र का पक्ष रखते हुए एएसजी पी. नरसिम्हन ने कहा कि अरुणा शानबाग के मामले में कोर्ट मेडिकल बोर्ड को लाइलाज मृतप्राय हो गए व्यक्ति के जीवन रक्षक उपकरण हटाने का अधिकार दे चुका है। वैसे भी हर मामले में अंतिम फैसला मेडिकल बोर्ड की राय पर ही होगा।
उन्होंने भारतीय परिवेश और समाज का हवाला देते हुए कहा कि इसका दुरुपयोग हो सकता है।
उन्होंने कहा कि कई पहलू हैं। जैसे कोई व्यक्ति 30 वर्ष पहले ऐसी वसीयत कर देता है और बाद में उसकी सोच बदल जाती है। या मेडिकल साइंस इतनी तरक्की कर लेती है कि स्थिति बदल गई हो।
संस्था की ओर से बहस करते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि जब किसी व्यक्ति के जीवन रक्षक उपकरण हटाने के बारे में उसके रिश्तेदार और मेडिकल बोर्ड फैसला कर सकता है तो फिर उस व्यक्ति को स्वयं जीवित रहते ऐसा फैसला करने का हक क्यों नहीं दिया जाना चाहिए।
बहस के दौरान पीठ ने साफ कर दिया कि वह बीमार व्यक्ति के होश मे रहते हुए कष्ट के कारण मृत्यु की मांग करने पर विचार नहीं कर रहा है। सिर्फ मृतप्राय स्थिति में पहुंच गए व्यक्ति जो होश में नहीं है, के जीवन रक्षक उपकरण हटाने के हक पर विचार कर रहा है। हालांकि कोर्ट ने भी इच्छामृत्यु के दुरुपयोग की आशंका जताई।