आपदाएं प्राकृतिक होती हैं। आदमी, औरत और बच्चों में भेदभाव नहीं करतीं। लेकिन औरतों का रहन-सहन, धारणाएं और प््राशासन का रवैया भेदभाव पैदा कर देता है। 2005 में आक्सफैम संस्था द्वारा सुनामी जैसी आपदा के बाद एक अध्ययन में यह बातें निकलकर आईं। नेपाल में आए भूकंप में राहत कार्य में लगा प्रशासन और खबरें पहुंचाती मीडिया के लिए जरूरी है कि वह जेंडर के प्रति संवेदनशील रहे।
2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ से प्रभावित लोगों के लिए बने शिविरों में और रिश्तेदारों के घर में औरतों के लिए सुरक्षित व्यवस्था, न होने से कुछ ऐसे मामले आए जिसमें नजदीकी लोगों ने बलात्कार किया।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार किसी भी आपदा में औरतें और बच्चे, पुरुषों के मुकाबले चैदह गुना ज्यादा मरते हैं। औरतों का पहनावा भी आपदा के समय बचकर भागने में बाधा बनता है। कुछ ऐसी औरतों का जिक्र भी किया जिन्होंने तैरना सीखा था और बाढ़ के दौरान वह बचने में सफल हुईं। मगर तैरना कम ही औरतें जानती हैं। तैरना कौन सीखेगा और कौन नहीं, यह भी जेंडर से जुड़ा मसला है।
हैती देश में 2010 में भूकंप के बाद अध्ययन किया गया तो पाया गया कि भूकंप से प्रभावित परिवारों में औरतों पर हिंसा बढ़ जाती है। इसका कारण काम धंधा ठप होना है। गुस्साए पुरुष औरतों पर ही अपना गुस्सा निकालते हैं।
औरतों के नाम कोई संपत्ति होती नहीं है। इसलिए मुआवजा केवल पुरुषों को ही मिलता है। जबकि खेती, मछली पालन, दुकान जैसे धंधों में औरतों की पुरुषों के साथ बराबर की भागीदारी होती है।
त्रासदी का कोई जेंडर नहीं होता है न ही वह जेंडर को समझती है। मगर सामाज में बने जेंडर की धारणा का असर आपदा के दौरान और आपदा के बाद साफ दिखाई देता है।
आपदा और जेंडर में भी है जुड़ाव
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