चुनाव का समय आ गया है। वह समय जब बड़े-बड़े नेता हमारे छोटे-छोटे गांव कस्बों में आना षुरू कर देते हैं। यह ऐसा समय होता है जब नेता अपना गुणगान और दूसरी पार्टियों पर आरोप लगाते थकते नहीं। बड़ी रैलियां नेताओं को जितना बड़ा मंच देती हैं, नेता उतने ही बड़े वादे और दावे करते हैं।
आज के दौर में तो नेताओं के कुर्ते, टोपियां और जैकेट का फैषन उनके समर्थक अपनाने लगे हैं। ऐसा माहौल जहां जब राजनीति का स्तर दिन-रात गिरता जाता है और इसके लिए नेता खुद को नहीं बल्कि दूसरी पार्टियों और उनके नेताओं को जि़म्मेदार ठहराते हैं, जब छिपे हुए वीडिओ कैमरे से ‘स्टिंग आपरेषन’ करके पार्टियों के भ्रष्ट नेताओं का पर्दाफाष किया जाता है – ऐसा माहौल इस देष में तेज़ी पकड़ रहा है।
ऐसे माहौल में क्या हमें नेता असली मुद्दों से भटका रहे हैं? प्याज़, टमाटर, आलू, धनिया जैसी सब्जियों के बढ़ते दामों का क्या? उन लोगों का क्या जिनके वोटर कार्ड तो बने हैं पर जो दस साल से राषन कार्ड के इंतज़ार में हैं? मनरेगा और मिड डे मील जैसी योजनाओं का क्या, जो सालों से ठप पड़ी हैं? उन गांवों की जि़म्मेदारी किसकी है जहां वोट पाने के बाद साइकिलें और लैप्टाप तो मिल गए पर उन्हें चलाने के लिए सड़कें और बिजली नहीं हैं? दंगों से प्रभावित उन लोगों का क्या जो अपने घरों से दूर सर्दी में राहत कैंपों में रहने को मजबूर हैं?
कौनसी पार्टी इन मुद्दों को सुलझाएगी? क्या इनका जवाब नेता अपनी रैलियों के भाषण में दे सकते हैं? अगर नहीं, तो षायद इस बार जनता को ‘नोटा’ (यानि किसी भी पार्टी के नेता नहीं) का ही बटन वोटिंग मषीन पर दबाना चाहिए।
आज के दौर की राजनीति का पर्दाफाष
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