भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। सभी धर्मों के लोग यहां बिना किसी भेदभाव के रह सकते हैं। ऐसा हमारे संविधान में लिखा है। लेकिन क्या वाकई में ऐसा हो रहा है? इस सवाल के जवाब में हमें अल्पसंख्यक समुदाय की दशा पर नजर डालनी होगी।
दिल्ली में पिछले ढाई महीनों में ईसाई समुदाय के धार्मिक स्थलों पर पांच हमले हुए। जब लोग एकजुट होकर केंद्रीय गृहमंत्री के सरकारी आवास के पास शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठे हुए तो उन्हें हिरासत में ले लिया गया। इससे पहले पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी में भी दंगे हुए थे। वहां मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया गया था। लोगों ने बताया कि उन्होंने हिंसा शुरू होते ही पुलिस को फोन कर सूचना दी लेकिन पुलिस घंटों बाद पहुंची। राजधानी मे जब यह हाल है तो पूरे देश में क्या होगा?
सवाल उठता है कि क्या प्रशासन और सरकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की जि़्ाम्मेदारी उठाने में असफल है या उठाना नहीं चाहता? क्योंकि ऐसे दंगों के कारणों की तलाश करने की कोई कोशिश नज़्ार नहीं आती। न तो संप्रदाय को निशाना बनाने वाले बयानों पर रोक लगाई जाती है और न ही ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों पर। ‘घर वापसी’ जैसे अभियान हिंदूवादी संगठन खुले आम चला रहे हैं। तो क्या संविधान में लिखा धर्मनिरपेक्ष शब्द अब केवल कागज़ी रह गया है?
इस बार 26 जनवरी में सरकार द्वारा अखबारों मे दिए गए विज्ञापन से यह शब्द गायब था। समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द संविधान की भूमिका में बदलाव करके 1976 में जोड़े गए थे। जब इस पर एतराज़ किया गया तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने गलती मानने की जगह कहा, दरअसल उन्होंने संविधान की मूल भूमिका को लिया था। तो क्या अब धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल भूमिका में ही नहीं है?
अल्पसंख्यक जनता किसकी जि़्ाम्मेदारी?
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