डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयन्ती को देशभर में धूमधाम से मनाया गया। ये पहली बार ही है कि उनकी जयंती लगभग हर राष्ट्रीय स्तर की पार्टी ने मनाई है। केन्द्र की सत्ताधरी भाजपा हो या विपक्ष में बैठी कांग्रेस या फिर दिल्ली की आम आदमी पार्टी, सब अपने स्तर पर भीमराव अम्बेडकर का गुणगान कर रहे हैं।
एक तरफ, प्रधानमंत्री अम्बेडकर की जन्मभूमि मध्य प्रदेश के महू पहुंचे हुए हैं तो 11 तारीख को ही सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने नागपुर में अम्बेडकर की जयंती मनाई। वहीं, आम आदमी पार्टी ने अखबार में एक पूरे पन्ने के बड़े विज्ञापन में बाबासाहेब को याद किया और शाम को स्टेडियम में आयोजित उनकी याद में कार्यक्रम में हर दिल्लीवासी को आमंत्रित किया। इस बार खास यह भी रहा कि संयुक्त राष्ट्र में भी उनको याद किया गया।
अम्बेडकर का 125वां जयंती वर्ष इस मायने से भी अभूतपूर्व है क्योंकि अम्बेडकर के घोर वैचारिक विरोधी भी उनकी जय-जयकार करते दिख रहे हैं। अगर अम्बेडकर की सामाजिक लोकतंत्र की विचारधारा को भारतीय राजनीति में उनकी जयंती और नारों की तरह जगह मिल जाए तो देश में जातिगत भेदभाव और आर्थिक विषमता मिट जाएगी। इसके अलावा अम्बेडकर की स्वीकार्यता से संविधान में विशेष रूप से उल्लिखित स्वाधीनता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को भी मजबूती मिलेगी।
लेकिन क्या यह होड़ असल में अम्बेडकर के मूल्यों और सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए है जिसके लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया?
अम्बेडकर के समानता और न्याय के प्रयासों के कट्टर विरोधी रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा, उनसे टकराने, फिर अपनाने और फिर हाशिये पर डाल देने वाली कांग्रेस भी उन्हें अपना बनाने की दौड़ में शामिल हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि दलित-पिछड़ी जातियों के ‘मसीहा’ कहे जाने वाले अम्बेडकर जो अब तक दो बड़े दलों में उपेक्षित थे, अचानक उन्हें गांधी-नेहरू के बराबर स्थापित करने की कोशिश क्यों की जा रही है? क्या गांधी-नेहरू की विरासत पर सवार कांग्रेस को नए नायक की जरूरत है? क्या वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी का नायकत्व भाजपा के लिए बौना साबित हो रहा है?
या फिर सरदार पटेल और गांधी को अपनाने वाली भाजपा के ‘नायक हड़प अभियान’ का अगला निशाना अम्बेडकर हैं?