तमिल नाडु के धर्मापुरी जिले में हुई घटनाओं ने समाज में जातिगत मानसिकता की सच्चाई को सबके सामने ले आया है। अंतरजातीय विवाह को समाज में क्या दर्जा दिया गया है और किस तरह से दो लोगों के जीवन से जुड़ा एक फैसला सामाजिक उथल पुथल का कारण बन जाता है, ये बात साफ हो गई है।
धर्मापुरी में जाति आधारित भेद भाव का एक लंबा इतिहास है। लेकिन आज भी सिर्फ धर्मापुरी ही नहीं बल्कि पूरे देश में जाति को लेकर वही पुरानी सोच कायम है। इस घटना से ये बात स्पष्ट है कि शादी आज भी एक ऐसा सामाजिक बंधन है जिसमें दो लोगों से ज़्यादा उनके परिवार, समुदायों और यहां तक कि राजनीतिक दलों का भी कहा मायने रखता है। अंतरजातीय विवाह एक ऐसी सामाजिक स्थिति है जो आज तक मानी गई जाति की व्यवस्था और घिसे पिटे मानकों को हिलाकर रख देती है। जब लड़कियों को भी आज़ादी से चुनने का हक हो तो समाज उन पर अपना नियंत्रण खो देता है। सामाजिक नियम बनाने वालों को इससे खतरा महसूस होता है।
धर्मापुरी में भी राजनीतिक पार्टी पी.एम.के. ने इस मामले को उछाला। दलित युवक की मौत के कारण की जांच जारी है और वनियार समूह की लड़की से कोई मिल भी नहीं पाया है। दोनों ने अपनी मर्ज़ी से शादी की थी, दोनों के परिवारों ने उन्हें स्वीकार लिया था, पर दो समुदायों में हिंसा छिड़ी और जाति पर अगर सोच बदलने के लिए एक कदम आगे बढ़ा था तो समाज दो कदम पीछे हो गया।
अपने जीवन में समाज की कुरीतियों और राजनीतिक दबाव के ऐसे दखल को क्यों स्वीकारा जाए? क्या दो लोगों को अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए फैसले लेने की इतनी ही आज़ादी है? अगर वे इस आज़ादी का इस्तेमाल करते हैं तो कैसे इस समाज को उन्हें दण्ड देने का अधिकार है?
अब भी जाति को प्राथमिकता क्यों?
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