अक्टूबर में दो बड़े शहरों में देश के पूर्वोत्तर हिस्से के निवासियों पर हमले हुए। पूर्वोत्तर भारत से आने वाले लोगों पर हिंसा की ये घटनाएं नई नहीं हैं। जनवरी 2014 में राजधानी दिल्ली में नीडो तानियाम नाम के अरुणाचल प्रदेश के रहने वाले की ऐसी हिंसात्मक घटना में मौत हो गई थी।
उत्तर भारत के पूर्वी हिस्से में सात राज्य हैं। इन राज्यों के कई लोग दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू जैसे शहरों में पढ़ने और काम करने आते हैं। यहां उन्हें लोग अपने घर किराए पर नहीं देना चाहते हैं, उनके रहन सहन का मज़ाक उड़ाते हैं। यहां तक कि उनकी शकलों को भी अलग-अलग नामों से बुलाते हैं। अगर भारत में उन सात राज्यों को देश का ही हिस्सा माना जाता है, तो वहां के लोगों के लिए इतना अलगाव और इस बरताव का कारण क्या है?
तानियाम की हत्या के मामले के बाद जुलाई 2014 में एक खास कमेटी ‘बेज़बरुआह कमेटी’ ने पूर्वोत्तर भारत के लोगों के साथ हो रहे भेदभाव और हिंसा पर अपने सुझावों की रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार बड़े शहरों में पूर्वोत्तर के लगभग छियासी प्रतिशत लोग भेदभाव का सामना करते हैं। रिपोर्ट ने यह भी कहा कि इस भेदभाव की रोकथाम के लिए एक नए कानून की ज़रूरत है। साथ में ऐसी कुशल कानून व्यवस्था की ज़रूरत है जहां इस भेदभाव के खिलाफ सख्त और समय से कारवाही की जाए पर अब तक इस रिपोर्ट के सुझाव सिर्फ कागज़ों में हैं।
असम की रहने वाली और दिल्ली में काम कर रही कार्यकर्ता ऋतुुपरना का कहना है कि हमारे देश में भेदभाव की शुरुआत स्कूलों में ही होती है जहां पूर्वोत्तर भारत के लोगों के बारे में उत्तर और दक्षिण भारत में पढ़ाया ही नहीं जाता है। यह ज़रूरी है कि सरकार और देश के लोग खुद इसे मानें कि अलग रहन सहन, खानपान और शकल के लागों के प्रति हिंसा और भेदभाव रोकने की ज़रूरत है।
अपने ही देश में नस्लभेद
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