अदालतें कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए बनी हैं, इंसाफ करने के लिए बनी हैं। अदालतों में फैसले सुनाने वाले जज उन्मादी नहीं हो सकते। अक्सर बलात्कार या दूसरे अपराधों में भीड़ दोषी को क्रूरता से मारने, हत्या का बदला हत्या से लेने की मांग करती है। मगर अदालतें कानून के दायरे में सज़ा सुनाती हैं। कानून शांति बनाए रखने के लिए है न कि बदले की भावनाओं को भड़का कर हिंसा का माहौल बनाने के लिए। मगर हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने जो सलाह केंद्र सरकार को दी वह अदालती सलाह कम तालिबानी फरमान ज़्यादा लगता है।
कोर्ट ने कहा कि बच्चों से बलात्कार करने वालों को सज़ा के तौर पर नपुंसक बनाने के प्रस्ताव पर गौर करना चाहिए। कोर्ट ने दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु के एक किशोर के यौन शोषण के आरोपी ब्रिटिश नागरिक द्वारा अपने ऊपर चल रहे यौन शोषण के मामले को रद्द करने के लिए दायर याचिका को खारिज करते हुए यह कहा। जस्टिस एन किरुबकरण ने अपने आदेश में कहा कि बाल यौन संरक्षण अधिनियम पोक्सो जैसा सख्त कानून होने के बावजूद बच्चों का शोषण जारी है। उन्होंने कहा कि अदालतें खामोशी से यह सब नहीं देश सकतीं। सवाल उठता है कि क्या अदालतें कानूनों की भूमिका और उनकी उपयोगिता पर सवाल उठा रही हैं? क्या समाज से अपराध दूर करने का उपाय केवल हिंसा है? इससे पहले भी 2011 में दिल्ली के एक जज ने बलात्कारियों को नपुंसक बनाए जाने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन 2013 में जस्टिस वर्मा कमिटी ने इसे मानव अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए मानने से मना कर दिया।
हालांकि यह सच है कि साल 2012 और 2014 के बीच ऐसे अपराधों की संख्या अड़तीस हज़ार से बढ़कर करीब साढ़े नवासी हज़ार हो गई। इनपर लगाम लगाना ज़रूरी है। मगर हिंसा के ज़रिए नहीं कानून व्यवस्था द्वारा और हिंसा का सामना करने वालों को सुरक्षा देकर।
अदालती सलाह या तालिबानी फरमान?
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