देश के गांवों में रोजगार की मांग बढ़ती जा रही है। तो वहीं सरकारी रोजगार योजना मनरेगा में धन की कमी साफ दिख रही है। बांदा के रहने वाले बच्चा लाल जो खुद मनरेगा मजदूर हैं, कहते हैं कि वह मनरेगा के तहत रोजगार करने पर एक दिन का 175 रुपये कमाते हैं। 65 साल के बच्चा लाल भूमिहीन मजदूर हैं, जो अपने घर में अकेले कमाऊ व्यक्ति भी हैं।
मनरेगा योजना जब देश में शुरु हुई, तो बच्चा लाल ने सोचा था कि सरकारी काम है, तो समय से पैसा मिलेगा और बेकार की लड़ाई झगड़ा से भी छुट्टी मिलेगी। लेकिन आज बच्चा लाल इन परेशानियों का सामना कर रहे हैं, क्योंकि काम के बाद मजदूरी समय से मिलती नहीं है और काम भी एक-दो दिन से ज्यादा का होता नहीं है।
2005 में मनरेगा योजना को गांवों में 100 दिनों का रोजगार देने के लिए लाया गया था, जिसका मकसद पलायन को रोकना था। 110 मिलियन मजदूर इस योजना से रोजगार पा रहे हैं और गांवों में मजदूरी आय का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है। कृषि क्षेत्र संकट के चलते बहुत से गांवों में कृषि किसानों के द्वारा नहीं मजदूरों से हो रही है। वहीं कृषि से अलग रोजगार में सीमित नौकरी है।
अपर्याप्त धन भी मनरेगा योजन को सचारु रुप से काम करने से रोक रही है। मनरेगा में देश का सकल घरेलू उत्पाद का आवंटन देखें, तो 2010-11 में ये 0.53 प्रतिशत था, जो 2017-18 में 0.42 प्रतिशत हो गया। केन्द्रीय सरकार की इस योजना में 96 प्रतिशत खर्च भी केन्द्र को ही उठाना है।
गांवों में 100 दिनों का रोजगार देने वाली ये योजना 2012-13 में 10 प्रतिशत और 2017-18 में 6 प्रतिशत लोगों को ही 100 दिन का काम दे सकी है। 2013 से 2018 तक ये प्रतिशत 10 तक ही रहा है। वहीं मनरेगा मजदूरी में देरी को देखें तो 78 प्रतिशत मजदूरी समय से नहीं दी जा रही है, तो 45 प्रतिशत मजदूरी पर देरी का मुआवजा भी नहीं दिया जा रहा है। मजदूरी में देरी होने की दशा में मुआवजे का नियम है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मजदूरी में देरी इस फरवरी से 63.5 प्रतिशत थी, वह मार्च में 99 प्रतिशत हो गई।
ये लेख मनरेगा पर खास आधारित श्रृंखला का पहला भाग है, जो इंडियास्पेंड पर पब्लिश हुआ है। ये लेख खबर लहरिया की रिपोर्टिंग पर आधारित है।