खबर लहरिया वेब स्पेशल क्या सच में फैक्ट्रियों में कपड़े बनाने वाले कर्मचारियों के लिए पीऍफ़ के लिए प्रदर्शन करना आसान था?

क्या सच में फैक्ट्रियों में कपड़े बनाने वाले कर्मचारियों के लिए पीऍफ़ के लिए प्रदर्शन करना आसान था?

PF
किसी भी आम दिन सावित्री जल्दी उठती है।  अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार करती है।  उसके बाद बंगलोर के बोम्मनहल्ली में शशी एक्सपोर्ट्स कपडा फेक्टरी की ओर 9 बजे की शिफ्ट के लिए भागती है। यहां उसे सारे दिन सुबह 9 बजे से 5.30 तक कपडे सीने होते हैं। बीच में सिर्फ आधे घंटे के लिए दोपहर के खाने के लिए उठती है। ज़्यादा उत्पाद की मांग के कारण अक्सर उसे देर तक रुकना होता  है,  इसके उसे अधिक पैसे भी नहीं मिलते। हर वक़्त उसके निरीक्षकों (सुपरवाइजर) द्वारा उसपर चिल्लाने से उसका खून खौल जाता है।  जब कभी कोई पलट कर जवाब देता है तो उसे नौकरी छोड़ने को बोल दिया जाता है।  या कुछ दिन आने से मना कर दिया जाता है। तमिलनाडु से अपनी 13 साल की लड़की के साथ बेंगलोर आई सावित्री को अपनी नौकरी से सम्बंधित कई चीज़े नहीं पसंद हैं। मगर उसके सब्र का बाँध तब टूटा जब उसने 16 अप्रैल को कन्नड़  अखबार में पीएफ (प्रोविडेंट फण्ड – भविष्य निधि) से सम्बंधित खबर पडी।  केंद्रीय सरकार ने इसे निकालने के नियम बदल देने का फैसला किया था। इसके अनुसार पीएफ में से इम्प्लॉई (कर्मचारी) का जमा किया हिस्सा ही निकाला जा सकता था। एम्प्लायर (मालिक) द्वारा जमा राशि 58 साल की उम्र में सेवानिवृत्त होने के बाद ही मिल सकती थी। इसका मतलब था कि अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए, उनकी शादी के लिए, इलाज के लिए, बैंक का क़र्ज़ चुकाने के लिए , किराया देने के लिए या ऐसे ही कई दूसरे कामों के लिए इस राशि का अब उपयोग नहीं किया जा सकता था।  
 
अपने साथ काम करने वाले लोगों की तरह सावित्री भी घबरा गयी। उस दिन जब वो फैक्टरी पहुंची, पहले से ही साथ की औरतें बाहर खड़ी थीं।  वे इस नए नियम के बारे में जानना चाहती थीं। 18 अप्रैल को जब वो काम करने पहुंची तो देखा अचानक ही बिना किसी योजना के औरतें इस नियम के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं।  वो भी इसमें शामिल हो गयी।  सावित्री ने बताया कि नारे और ज़्यादा तेज़ होते जा रहे थे।  जब शाम तक ज़्यादा कुछ होता दिखाई नहीं दिया तो वो समय से कुछ पहले मार्च छोड़ घर आ गयी।  ये कोई छोटा मोटा प्रदर्शन नहीं था। इसमें 1. 2 लाख कपडा कर्मचारियों ने भाग लिया था।  इनमे अधिकतर महिलायें थीं।  वे बोम्मनहल्ली, होसुर रोड, पीन्या और जालाहल्ली क्रॉस पर प्रदर्शन कर रही थीं।  बसों को आग लगा दी गयी, पुलिस, बसों और पुलिस स्टेशन पर पत्थर फेंके गए। शहर के कई हिस्से जैसे थम गए।  19 अप्रैल को केंद्रीय सरकार ने घोषणा की कि वो अपना फैसला वापस ले रही है।  और शादी, बीमारी, घर खरीदने और बच्चों की पढ़ाई जैसे कारणों से पीएफ निकलने की इजाज़त देगी।
 
हालाँकि उनके प्रदर्शन से शहर में होने वाली परेशानी को सबने महसूस किया होगा।  मगर वे सभी इसके लिए इन औरतों के कर्ज़दार हैं।  इनमे से ज़्यादातर किसी यूनियन का हिस्सा नहीं थीं।  उनके द्वारा विरोध से सभी को फायदा हुआ।  चाहे वो बेंगलोर के आई टी कर्मचारी हों या दिल्ली के फैक्ट्री कर्मचारी।    
 
ऐसा पहले भी हुआ है 
 
जुलाई 2001 में पीन्या के कपडा फैक्ट्री कर्मचारियों ने इसी कारण से विरोध किया था।  ये नया नियम सुनकर कि वे 45 साल की उम्र तक पीएफ नहीं निकाल पाएंगी, औरतें सड़कों पर निकल आई थीं। विरोध का रूप अभी किये गए प्रदर्शन जैसा ही था। ये विरोध एक दिन चला था। जानकी नायर जो इतिहास की प्रोफेसर है ने ‘द टेलीग्राफ’ अखबार में लेख लिखा था।  इसमें उन्होंने लिखा कि किस तरह मीडिया में इस विरोध में जलाई गयी बसों और फेंके पत्थरों को दिखाया गया।  मगर इसके पीछे जो मुद्दा था वो समझने की  कोशिश नहीं की गयी। 
 
गारमेंट लेबर यूनियन की एग्जीक्यूटिव कमिटी मेंबर यशोधा ने पीएफ से सम्बंधित सरकार के निर्णय को “लूटी” कहा।  कपड़ा फैक्टरी कर्मचारियों की पहले ही इतनी मुश्किलें हैं।  ऊपर से ये नयी मुश्किल। “ऐसी जगह 58 साल तक कौन काम करना चाहेगा जहां मौलिक सहूलियतें भी न मिलें।” यशोधा ने कहा।  लोग गुस्सा है और डरे हुए है। किसी भी छोटी सी घटना पर वे नौकरी गवां सकते हैं।  उन्हें नौकरी पर रखने वालों को ये भी नहीं बताना होता कि वे उन्हें क्यों निकाल रहे हैं।  बस वे कहते है कल से न आना।  और लोग अपनी नौकरी खो देते हैं।” शांति, एक कपडा फैक्टरी कर्मचारी, बताती है, “उत्पाद लक्ष्य बढ़ते ही जा रहे हैं।  पहले एक घंटे में 50 आइटम का लक्ष्य था।  जो हम कर पाते थे।  अब ये बढ़कर 80 – 90 प्रति घंटा हो गया है।”  
 
यशोधा बताती है कि पेपर पर उन्हें कई चीज़े मिलने की बात की गयी है।  मगर असलियत में उनके कोई अधिकार नहीं है।  ” कानून के अनुसार हम 15 दिन की छुट्टी ले सकते हैं।  मगर असलियत में हम आपातकालीन स्थितियों में भी छुट्टी नहीं ले पाते।  अगर एक दो दिन की छुट्टी पर चले जाएँ तो नौकरी से निकाल दिया जाता है। ” यूनियन बनाने पर भी पावन्दियां है।  अगर कोई लोगों को एकजुट करने की कोशिश करता है तो उसकी नौकरी जाती है।  
 
काम के स्थान पर उत्पीड़न आम बात है।  फरवरी 2007 में अम्मू नाम की कर्मचारी ने आत्महत्या कर ली थी।  उसे सुपरवाइज़र द्वारा सताया जा रहा था।  अक्टूबर 2007 में एक और कर्मचारी रेणुका ने भी इसी कारण आत्महत्या कर ली।  सावित्री बताती है, ” वे हमेशा हम पर चिल्लाते रहते हैं।” शांति कहती है, ” जब हम अपनी समस्याएं बताते है तो कोई नहीं सुनता।  बस वे इतना कहते है कि ये नियमानुसार है।”  शरबी शर्मा ने एक दशक पहले कपडा कर्मचारियों पर 2 फिल्में बनाई थीं।  उन्हें देखो तो लगता है इतने समय में कुछ भी नहीं बदला।  
 
सविडप के गोपीनाथ परकुंनि  बताते हैं कि इन कपडे की फैकटरियों में 80 प्रतिशत औरतें होती है।  यहाँ यौन शोषण आम बात है।  इसके ज़्यादातर मामले रिपोर्ट नहीं किये जाते।  जो औरतें आवाज़ उठाती भी है उन्हें विरोध झेलना पड़ता है। ” नौकरी की कोई गारंटी या कॉन्ट्रैक्ट नहीं होता।  अगर आप किसी को गुस्सा कर दो तो नौकरी छोड़नी  पड़ती है।  फिर दूसरी फैक्टरी ढूँढो।  इससे पूरा घर अस्त व्यस्त हो जाता है।  नया घर ढूँढो और बच्चों का नया स्कूल। ” “हमे न्यूनतम मज़दूरी मिलती है।  और अधिक घंटे काम करने पर भत्ता भी नहीं मिलता। ” सावित्री बोली।  
 
“इन फैकटरियों में काम करने वाली औरतों के पति ज़्यादातर कुली, पेंटर जैसी छोटी छोटी नौकरियां कर रहे होते हैं। उनकी कमाई का कोई भरोसा नहीं होता।”  यशोधा ने बताया।  इसका मतलब है कि घर औरतों द्वारा ही चलाया जाता है जो शहर आती हैं।  और भोजन, किराया, शिक्षा, बच्चों की शादी उनके स्वास्थ्य सब का ध्यान रखती हैं।  फिर भी उन्हें दुनिया भर की मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं।  ऐसे में पीएफ महत्त्वपूर्ण हो जाता है।  “हम कोई पीएचडी करके प्रोफेसर की नौकरी नहीं कर रहे है जो हमें इस नियम से फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। ” उन्होंने आगे कहा।  
 
हालाँकि पीएफ के मुद्दे ने ही मुखयतः संघर्ष को जन्म दिया।  मगर फिर भी कई और मुद्दे है जिनका ये  औरतें निपटारा चाहती हैं।  सावित्री कहती हैं, ” मुझे अपनी बेटी को पढ़ाना है।  घर चलाना है ये सब मैं सिर्फ अपने वेतन से नहीं कर सकती।  ये तत्कालीन समस्या थी जिसका मुझे समाधान करना था।  बस मुझे ये आश्वासन चाहिए कि मैं अपना पीएफ निकाल सकती हूँ।”  
साभार : इला अनन्या / द लेडीज फिंगर (http://theladiesfinger.com/heres-women-protesters-bangalore-provident-fund/)